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________________ १८० आनन्द प्रवचन | छठा भाग बन्धुओ ! यहाँ आपको शंका होगी और आपके हृदय में यह विचार उठेगा कि आखिर संत-साध्वी अपना इलाज तो कराते ही हैं । वे शास्त्रोक्त निषेध का पालन कहाँ करते हैं ? इस विषय में आप गम्भीरता पूर्वक समझें कि भगवान महावीर की आज्ञानुसार शास्त्रकारों ने रोगादि की भयानक स्थिति में साधु के लिए जो उपचार का निषेध किया है, वह उत्सर्ग मार्ग है और सिर्फ जिनकल्पी श्रमण की अपेक्षा से प्रतिपादित किया गया है । 1 अपवाद मार्ग में तो स्थविरकल्पी साधु के लिए उपचार एवं औषधि का निषेध नहीं है । उसकी चिकित्सा के लिए निरवद्य औषधि का प्रयोग किया जा सकता है । लोक व्यवहार की दृष्टि से भी यह अनुचित नहीं है । क्योंकि अगर एक संत किसी विशेष प्रकार की व्याधि से पीड़ित है और उससे उसकी साधना में बाधा पड़ती है तो उपचार कराना चाहिए। न करने पर लोग कहते हैं कि जैन अहिंसक होते हैं, किन्तु साधु को व्याधि से पीड़ित देखकर भी उसका उपचार न करके कितनी निर्दयता, क्रूरता या हिंसा का प्रमाण दे रहे हैं ? इस प्रकार रोग पीड़ित साधु की निरवद्य औषधि द्वारा भी चिकित्सा न करने पर निन्दा होती है तथा जैन समाज आलोचना का पात्र बनता है में फिर भी साधु को चाहिए कि वह अपने शरीर में पैदा हुए रोगों के लिए किंचित् मात्र भी चिन्ता न करे, उनके तुरन्त निवारण की अपेक्षा न करे, शांति एवं समता पूर्वक उन्हें सहन तथा परिणामों तनिक भी विषमता या आर्त-ध्यान न आने दे। साथ ही वह रोग निवारण के लिये औषधि की अपेक्षा आत्म-बल पर अधिक विश्वास रखे तथा उसके द्वारा ही स्वस्थता का इच्छुक बना रहे । पर औषधि अगर लेनी पड़े तो अपने नियमों का कड़ाई से पालन करते हुए लेवे । यह नहीं कि डॉक्टर या वैद्य ने कहा कि रात्रि के समय दवा लेनी पड़ेगी तो साधु तैयार हो जाय । साधु के लिये जीवन पर्यन्त का रात्रि को आहार -पानी आदि का त्याग होता है अतः आत्मार्थी मुनि इसके लिये स्पष्ट इन्कार करे । एक बार घाटकोपर बम्बई में मुनि मोतीऋषि जी की तबियत रात्रि में बहुत खराब हो गई। संघ के अध्यक्ष हरिभाई रात में डॉक्टर को लाये और बोले— " महाराज को इन्जेक्शन लगा दीजिये ।" हमने इसके लिये स्पष्ट इन्कार कर दिया कि - " हमारे यहाँ रात्रि को यह सब नहीं हो सकता ।" डॉक्टर ने भी बहुत जोर देकर कहा - "अगर इन्हें इंजेक्शन अभी नहीं दिया जाएगा तो संभव है लकवा हो जाय और ये समाप्त हो जायँ ।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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