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शरीरं व्याधिमंदिरम्
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वैसे भी नष्ट होने वाला है अतः उसकी चिन्ता करने से क्या लाभ है ? मैं तो कर्मरूपी रोगों का सम्पूर्ण रूप से नाश करना चाहता हूँ और उसी में जुटा हुआ हूँ। इसलिए शरीर के इन रोगों के उपचार में अपने जीवन के अमूल्य क्षण व्यर्थ जाने देना नहीं चाहता।"
___ इस प्रकार 'रोग-परिषह' को जीतते हुए मुनि सनत्कुमार अपनी साधना को उत्कर्ष की ओर बढ़ाते रहे । यद्यपि उनकी शारीरिक स्थिति अत्यन्त खराब थी। विचरण करना कठिन होता था, क्योंकि पैरों में घाव ही घाव हो गये थे। किन्तु उनकी ओर से वे पूर्णतया लापरवाह थे । देव ने उस समय भी मोची का रूप बनाकर उन्हें कसौटी पर कसने की इच्छा से आकर कहा-"महाराज ! आपके पैरों में बहुत घाव हो चुके हैं अतः आप कहें तो मैं पदत्राण आपके लिए तैयार कर दूं।"
पर मुनिश्रेष्ठ कब इसके लिए तैयार होने वाले थे ? उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया। कहने का अभिप्राय यही है कि मुनिधर्म का सच्चे मायनों में पालन करने वाले महामुनि सनत्कुमार जी अनेक रोगों के शरीर में विद्यमान रहते हुए भी बिना उनसे रंचमात्र भी विचलित हुए अपनी आत्म-साधना में लगे रहे और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हुए। इसे ही 'रोग-परिषह' विजय कहते हैं । भगवान का आदेश भी यही है
तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खऽत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ॥
उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २, गा० ३३ अर्थात आत्मा की गवेषणा करने वाला साध रोगादि की चिकित्सा का कभी अनुमोदन न करे अपितु समाधि में रहता हुआ किसी औषधि के द्वारा न तो स्वयं उसके प्रतिकार करने का प्रयत्न करे और न दूसरों से करावे । इसी में उसकी साधुता की महत्ता है।
आशय यही है कि रोगों को पूर्वकृत कर्मों का फल समझकर साधु पूर्ण समभाव पूर्वक उनके द्वारा पैदा हुई वेदना को सहन करे तथा उन्हें भोग लेने में आत्मा का कल्याण यानी कर्मों की निर्जरा समझे। अत्यन्त धैर्य एवं दृढ़ता पूर्वक रोग-जनित वेदना को सहन करने पर ही साधु सच्चा श्रमण कहला सकता है ।
एक बात और ध्यान में रखने की है कि भले ही साधु स्वयं चिकित्सा-शास्त्र का ज्ञाता हो तथा रोग-निवारण की क्षमता रखता हो, किन्तु उस स्थिति में भी वह अपनी चिकित्सा स्वयं न करे और न ही औरों से कराने का प्रयत्न करे यानी अपनी अनुमति ही न दे।
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