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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
"अहो ! कैसा अद्वितीय रूप है ! मैंने जैसा सुना था उससे भी अधिक सौन्दर्य आपका । मैं धन्य हो गया आपकी शरीर सम्पदा देखकर ।”
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अपने सौन्दर्य की ऐसी प्रशंसा सुनकर महाराज सनत्कुमार तनिक गर्व से भर गये और बोले— "द्विज श्रेष्ठ ! अभी तुमने मेरा सौन्दर्य अच्छी तरह और पूर्ण रूप से कहाँ देखा है ? इस समय तो मैं स्नान आदि नित्य कार्यों के लिए जा रहा हूँ अतः वस्त्राभरण से रहित हूँ । अगर तुम्हें मेरा रूप देखना है तो जब मैं वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर दरबार में आऊँ तब देखना ।"
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" जो आज्ञा !" कहकर ब्राह्मण पुनः राज्य दरबार में पहुँचने का निश्चय करके राजमहल से बाहर आ गया ।
अपने निश्चय के अनुसार वह नियत समय पर दरबार में पहुँचा और एक स्थान पर बैठकर सनत्कुमार का सौन्दर्य-पान करता रहा ।
कुछ समय पश्चात् जब राजा की निगाह उस पर पड़ी तो उन्होंने ब्राह्मण को अपने पास बुलाया और पूछा - "ब्राह्मण देवता ! अब बताओ कि मेरा सौन्दर्य तुम्हें कैसा लगा ?"
"महाराज ! अब तो वह बात नहीं रही ।" ब्राह्मण के यह वचन सुनकर चक्रवर्ती सनत्कुमार मानों आकाश से गिर पड़े। महा विस्मय से उन्होंने पूछा - " यह क्या कह रहे हो ? अब तो मेरे रूप में चार चाँद लग गये हैं और तुम कह रहे हो, वह बात नहीं रही ? इसका क्या प्रमाण है ?"
ब्राह्मण बोला - "महाराज आप तनिक समीप रखी हुई इस पीकदानी में थू किये ।”
सनत्कुमार जी ने वैसा ही किया । पर थूकने के पश्चात् देखते क्या हैं कि उनके थूक में सैकड़ों कीड़े बिलबिला रहे हैं । वह इस कारण कि उनके शरीर में सोलहों रोग हो गये थे । शरीर की ऐसी स्थिति देखकर महाराज को विरक्ति हो गई और उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया । किन्तु रोगों ने उसके पश्चात् भी उनका पिंड नहीं छोड़ा । पर वे सच्चे मुनि थे अतः बिना उनकी परवाह किये निरन्तर साधना मार्ग पर अग्रसर होते रहे । 'रोग परिषह' पर उन्होंने पूर्णतया विजय प्राप्त कर ली थी ।
यहाँ तक कि उनकी दृढ़ता की परीक्षा स्वयं देवता ने एक बार देव वैद्य का रूप बनाकर उनके पास आया और अगर आप मेरी दवा लें तो मैं आपकी बीमारियाँ ठीक कर दूंगा ।”
आकर कई बार ली । बोला - "महाराज !
पर धन्य थे सनत्कुमार मुनि, जिन्होंने उत्तर दिया – “वैद्यजी ! आप शरीर का रोग ठीक कर देंगे, किन्तु कर्म रूपी रोगों को भी नष्ट कर सकेंगे क्या ? शरीर तो
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