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शरीरं व्याधिमंदिरम्
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यह बताते हुए कवि कहता है- "अरे प्राणी ! तू सांसारिक प्रपंचों में दिन के और रात्रि के चारों प्रहर व्यतीत कर देता है, फिर राम का यानी भगवान का भजन कब करेगा ?"
वस्तुतः यह शरीर तो प्रतिपल जीर्ण होता चला जाता है, पर मनुष्य इस बात की परवाह नहीं करता और इसके द्वारा कोई लाभ नहीं उठाता । जब तक वह स्वस्थ रहता है, तब तक तो अपने रूप के, धन के या परिवार के घमण्ड में भूला रहता है तथा भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिये भाग-दौड़ करता है और जब उसी शरीर को रोग घेर लेते हैं तो हाय-हाय करता हुआ अपने कर्मों को और भगवान को कोसता रहता है ।
किन्तु जो भव्य प्राणी अपने जीवन का महत्त्व समझ लेते हैं वे जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाते और निरंतर आत्मोन्नति में लगे रहते । वे स्वस्थ रहते हैं तब भी अपनी आत्मा के लाभ का प्रयत्न करते हैं और रोगों का आक्रमण हो जाने पर भी 'रोग परिषह' पर विजय प्राप्त करते हुए अपना सम्पूर्ण ध्यान आत्मा का कष्ट मिटाने की ओर लगाये रहते हैं ।
चक्रवर्ती सनत्कुमार के विषय में आपने पढ़ा और सुना होगा कि वे अद्वितीय सौन्दर्य के धनी थे । स्वर्ग के देवता भी उनके सौन्दर्य का अवलोकन करने की आकांक्षा रखते थे ।
एक बार एक देव दीन-दरिद्र ब्राह्मण का रूप धारण करके सनत्कुमार महाराज के सौन्दर्य - दर्शन की लालसा से आया । वह प्रातः काल महल के द्वार पर पहुँचा और प्रहरियों से महाराज के दर्शन की इच्छा प्रकट की । द्वारपालों ने उसे रोका और कुछ समय पश्चात् राज्य- दरबार के समय उपस्थित होकर महाराज से मिलने की सलाह दी । ब्राह्मण माना नहीं और उसने कहा - " मैं बड़ी दूर से आया हूँ, यहाँ तक कि पैरों की जूतियाँ भी मेरी फट गई हैं । कृपया तुम महाराज से यही बात जाकर कहो ताकि वे मुझे अविलम्ब दर्शन दें । ठुकराएँगे नहीं।"
मुझे विश्वास है कि वे मेरी प्रार्थना
द्वारपाल ब्राह्मण की उत्कट इच्छा जानकर महाराज के पास गया और उन्हें ब्राह्मण की सारी बात कह सुनाई । चक्रवर्ती सनत्कुमार बड़े दयालु थे । उन्होंने दया करके ब्राह्मण को अपने पास आने की इजाजत दे दी ।
द्वारपालों के कथनानुसार ब्राह्मण हर्षित होता हुआ राजमहल में पहुँचा । ज्योंही वह महाराज के समक्ष पहुँचा, उसकी आँखें आश्चर्य से विस्फारित हो गई । अत्यन्त चकित और गद्गद् होकर वह बोल उठा
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