________________
१७६
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
आजु कि काल चले उठि मूरख,
तेरे ही देखत केते गये हैं। सुन्दर क्यों नहिं राम संभारत,
या जग में कहु कौन रहे हैं। संत-महापुरुष जगत के प्रत्येक व्यक्ति को चेतावनी देते हुए कहते हैं-"भोले प्राणी ! तू जीवन भर सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहा, नाना प्रकार के भौतिक पदार्थों को जुटाने में लगा रहा तथा अपने परिवार के व्यक्तियों और स्वजनों के मोह में पड़ा हुआ अनेकानेक कुकर्म कर चुका । यहाँ तक कि अब तो तेरे सिर के सम्पूर्ण केश भी श्वेत हो चुके हैं, किन्तु अब तक भी तू इन सबके प्रति रही हुई आसक्ति एवं ममता का त्याग नहीं करता।"
__"ओ मूर्ख! यह तो ध्यान में रख कि मौत ने तुझे अनेकों संदेश भेज दिये हैं। यानी वृद्धावस्था के कारण तेरा शरीर शिथिल हो गया है, गात्र संकुचित हो गया है, कान बहरे हो चुके हैं और दांत टूट गए हैं। बाल भी सफेद हो चुके हैं तथा नेत्रों से बराबर दिखाई नहीं देता। फिर भी तू सावधान नहीं होता, जबकि तेरे समक्ष ही असंख्य व्यक्ति इस पृथ्वी पर से उठ चुके हैं। निश्चय ही तू भी यहाँ नहीं रहेगा, क्योंकि इस जगत में कोई भी स्थायी नहीं रहता। फिर भाई कम से कम अब तो तू ईश-चिन्तन कर और धर्मध्यान में मन लगा।"
। वस्तुतः जिन भोगोपभोगों के साधनों को जुटाने के लिये मनुष्य दिन-रात दौड़-धूप करता है और जिनकी प्राप्ति के लिये अथक श्रम करता रहता है, वे क्या स्थायी रहने वाले हैं ? नहीं। भले ही मानव अपने अमूल्य जन्म को इस प्रकार वृथा गँवाकर भी उसे सफल समझता है पर देखा जाय तो वह क्षण-क्षण करके निरर्थक ही जाता है। एक मराठी कवि ने भी जीवन के सम्बन्ध में कहा है
घटका गेली, पलें गेली, तास बाजे झणाणा, आयुष्याचा नाश होतो, राम कां हो म्हणाणा ? एक प्रहर, दोन प्रहर, तीन प्रहर गेले,
प्रपंचाच्या व्यापाने चार ही प्रहर गेले ॥ हिन्दी के कवि ने जो बात कही है, वही बात मराठी कवि भी कह रहा है कि पल जाता है, घड़ी जाती है और घड़ी में टकोरे लगते हुए दिन-रात व्यतीत होते जाते हैं । इस प्रकार एक-एक पल, घटिका और प्रहर, दो प्रहर तथा तीन प्रहर व्यतीत होते हुए आयुष्य बीतता चल जाता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org