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________________ शरीरं व्यधि-मंदिरम् १७५ रहे यहै दिन, आधि-व्याधि गृहकाज समोये। नानाविधि बकवाद करत, सबदिन को खोये ॥ जल की तरंग सदृश, देह खेह ह जात है। सुख कहो कहाँ इन नरन को, जासों फूलत गात है। आज व्यक्तियों को धर्म-ध्यान करने के लिये अथवा तप-त्याग अपनाने के लिये कहा जाता है तो वे कह देते हैं अभी तो बहुत उम्र बाकी है, फिर कर लेंगे। किन्तु कवि कहता है कि मनुष्य को जीवन में आखिर समय मिलता ही कितना है ? यद्यपि आज मुश्किल से ही कोई सौ वर्ष की उमर तक जीता है, अगर हम उम्र को सौ वर्ष की मान लें तो उस हिसाब से सो के आधे अर्थात् पचास वर्ष तो रात्रि को सोने में व्यतीत हो जाते हैं। बचे पचास, उनमें से साढ़े बारह वर्ष बचपन के और साढ़े बारह वर्ष वृद्धावस्था के व्यर्थ जाते हैं। क्योंकि बाल्यकाल में बालक आत्मा के महत्व को नहीं समझता तथा लोक-परलोक, पाप-पुण्य एवं स्वर्ग-नरक आदि के विषय में गम्भीरता से नहीं सोच सकता और वृद्धावस्था में इन सबके विषय में ज्ञान होने पर भी अशक्ति के कारण आत्मकल्याण के लिये साधना नहीं कर सकता । ___तो पचास वर्ष रात्रि के साढ़े बारह वर्ष बचपन के और साढ़े बारह वर्ष वृद्धावस्था के निकाल देने के पश्चात् अगर आयु की सौ बरस मानते हैं तो केवल पच्चीस वर्ष बाकी रह जाते हैं। इन पच्चीस वर्षों में भी क्या व्यक्ति आत्म-कल्याण के लिये कुछ करता है ? नहीं। वह अपनी युवावस्था में घमण्ड के मारे जमीन पर पाँव नहीं रखता । अपने परिवार का, धन का, रूप का और शक्ति का गर्व हृदय में भरे हुए, बात-बात में लोगों से उलझता है, नाना प्रकार के बहानों को लेकर औरों से झगड़ता है और इनसे समय बचा तो आधि-व्याधि या उपाधियों से जूझता रहता है । परिणाम यह होता है कि यह मानव-जीवन जिसप्रकार जल की तरंग आती है और चली जाती है, उसी प्रकार क्षण-क्षण करके समाप्त हो जाता है। फिर बताइये कि मानव अपने जीवन से क्या लाभ उठाता है और किस बात का गर्व करता है ? कुछ भी तो उसके पास गर्व करने लायक नहीं है। समस्त सांसारिक वैभव तो अस्थिर है ही, शरीर भी क्षणभंगुर है जो कि देखते-देखते ही नष्ट होकर खाक में मिल जाता है। इसीलिये कवि सुन्दरदास जी कहते हैंसंत सदा उपदेश बतावत, केश सबै सिर श्वेत भये हैं। तू ममता अजहूँ नहिं छांडत, मौतहु आइ संदेश दये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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