________________
१७४
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में बड़ा आश्चर्य प्रगट करते हुए कहा है
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ति । रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ॥ आयुः परिस्रवति छिन्न घटादिवाम्भो ।
लोकस्तथाऽप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥ वृद्धावस्था भयंकर बाधिन की तरह सामने खड़ी है। रोग शत्रुओं की तरह आक्रमण कर रहे हैं । आयु फूटे हुए घड़े के पानी की तरह निकली चली जा रही है। पर आश्चर्य की बात है कि लोग फिर भी वही काम करते हैं, जिनसे उनका अनिष्ट हो।
वस्तुतः जरारूपी सिंहनी इस शरीर की ओर सदा ताक लगाए रहती है जो कि दाव पाते ही खून चूस लेती है । युवावस्था में रहने वाली शक्ति वृद्धावस्था में नहीं टिकती। जिस प्रकार खेल-तमाशे वाले पहले ही सूचना देते हैं—'येणार-येणार ।' वैसे ही यह वृद्धावस्था कहती है-मैं आने वाली हूँ, आने वाली हूँ ! अतः अगर चाहो तो अभी धर्मध्यान कर लो।
रोग भी वृद्धावस्था से कम नही हैं। वृद्धावस्था तो युवावस्था के बाद ही आती है किन्तु रोग तो न शैशवावस्था देखते हैं, न युवावस्था और न ही वृद्धावस्था का ध्यान रखते हैं। किसी भी आयु में और किसी भी समय वे अचानक ही आक्रमण कर बैठते हैं । वे यह नहीं देखते कि बच्चे को बहुत तकलीफ होगी और वृद्ध अशक्ति के कारण हमारा सामना नहीं कर पाएगा। तो पूर्व कर्म रोगों के रूप में प्रत्येक जीव से अपनी वसूली कर ही लेते हैं, किसी को भी नहीं छोड़ते।
श्लोक के तीसरे चरण में कहा है-जिस प्रकार फटे हुए घड़े में से एक-एक बूंद पानी टपकता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी क्षण-क्षण में समाप्त होता चला जाता है। किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि व्यक्ति ऐसी स्थिति में भी चेतता नहीं है और संकटों से घबराता हुआ नवीन कर्मों का बन्धन करता चला जाता है जो आत्मा के लिये महा अनिष्ट का कारण बनता है। जिन्दगी के इस छोटे से काल भी मानव इसी प्रकार आत्मा का हित न सोचता हुआ अनेकानेक अगले जन्मों के लिये दुःख एवं कष्ट का सामान तैयार कर लेता है ।
एक कवि ने जीवन की अल्पता और उस अल्पकाल में भी मनुष्य की बेपरवाही के विषय में बताते हुए कहा है
शतहि वर्ष की आयु, रात में बीतते आधे । ताके आधे-आध वृद्ध बालकपन साधे ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org