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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
किसी का सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता। लोग उसके पास बैठने-उठने से भी डरने लगते हैं । दूसरे पारमार्थिक दृष्टि से भी मन में माया या कपट रखने वाला व्यक्ति आत्म-शुद्धि को प्राप्त नहीं होता तथा अपने संसार को बढ़ाता जाता है। कहा भी है
जइ विय णिगणे किसे चरे,
जइ विय भुजेमासमंतसो। इह मायाइ मिज्जइ,
आगंता गम्भाऽणंतसो ॥ अर्थात्-व्यक्ति भले ही नग्न रहे, महिने-महिने का अनशन करे और शरीर को कृश एवं अत्यन्त क्षीण कर डाले, किन्तु अगर वह अपने अन्तर में माया और दम्भ रखता है तो जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता ही रहता है ।
इसीलिये मुमुक्षु प्राणी को माया का सर्वथा त्याग करने का आदेश दिया गया है। माया कषाय के वश में पड़ा हुआ प्राणी आत्मा के हिताहित का भान भूल जाता है, वह तो प्रतिपल औरों के अहित का चिन्तन करता है और उस पर भी अपनी पोल खुल न जाये, इसके लिए भयभीत बना रहता है।
अब कहते हैं - "शरणम् तु सत्यम् ।' जीव के लिए इस संसार में सत्य के अलावा अन्य कुछ भी शरणदाता नहीं है । सत्य की महत्ता शब्दों से नहीं बताई जा सकती । 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में तो कहा है-तं सच्चं भगवं ।' सत्य ही भगवान है ।
मला इससे बढ़कर सत्य का महत्व और क्या बताया जा सकता है ? भगवान से बढ़कर तो और कुछ है नहीं । अतः सत्य को उन्हीं के समान कहा गया है दूसरे सत्य के महत्व को और भी बढ़ाने के लिए सत्य को ही भगवान माना गया है। पर यह असत्य नहीं है और न ही इसमें अतिशयोक्ति है । जो सत्य को पहचान लेता है वह कभी भी और कहीं भी धोखा नहीं खाता । परिणाम यह होता है कि सत्यवादी अपनी आत्मा को निरन्तर कलुष से बचाता चला जाता है और एक दिन अपनी आत्मा को परमात्मा या भगवान के रूप में परिणत करा लेता है। सत्य के विषय में कहा गया है
एकतः सकलं पाप-मसत्योत्थं ततोऽन्यतः । साम्यमेव वदन्त्यार्या-स्तुलायां धृतयोस्तयोः ॥
-ज्ञानार्णव, पृष्ठ १२६ ___ कहते हैं—एक ओर जगत के समस्त पाप एवं दूसरी ओर असत्य का पापइन दोनों को तराजू में तोला जाये तो बराबर होंगे, ऐसा आर्यपुरुष कहते हैं ।
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