SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलाभो तं न तज्जए ज्ञान और साधना आदि किसी का मान नहीं करना चाहिए। मान कभी भी आत्मा को शुद्ध नहीं रहने देता तथा विनय के नाश का कारण बनकर आत्म-गुणों को विकृत कर देता है। ___आगे कहा है-दुनिया में प्राणी का हित करने वाला अप्रमाद है । प्रमादी व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता । कल मैंने आपको खरगोश और कछुए की दौड़ के विषय में बताया था कि कछुआ यद्यपि खरगोश का स्वप्न में भी मुकाबला नहीं कर सकता था। किन्तु वह अप्रमादी था, अतः लगन-पूर्वक धीरेधीरे चलता रहा । परिणाम यह हुआ कि उसने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। किन्तु खरगोश प्रमादी था अतः तेज दौड़ने की क्षमता रखने पर भी प्रमाद के कारण सो गया और कछए से पीछे रह गया। साधक के लिए भी साधना मुक्ति को प्राप्त कराने वाला मार्ग है। किन्तु अगर साधक प्रमाद में पड़ गया तो मार्ग कटना कठिन हो जाएगा, पर अगर वह अपनी शक्ति के अनुसार धीरे-धीरे भी बढ़ता रहे तो निश्चय ही अपनी मन्जिल को प्राप्त कर सकता है। अतः आवश्यक है कि वह ज्ञान-प्राप्ति में, चिन्तन-मनन में, तप-त्याग में और ध्यान-साधना में प्रमाद न रखे, तभी लक्ष्य को पा सकता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते। कहते हैं-समय बड़ा भयंकर है और शरीर प्रतिपल जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा है । अतः साधक को अप्रमत्त भाव से भारंड पक्षी की तरह विचरण करना चाहिए । भारंड पक्षी सदा सतर्क और सजग रहता है । अतः उसका उदाहरण साधक के लिए दिया गया है । वस्तुतः सतक जागरूक एवं सतर्क रहने वाला साधक ही अपने पथ पर अग्रसर हो सकता है तथा गतव्य को पा सकता है। अब आता है—'माया भयम्'। यानी माया के जैसा कोई भय नहीं है। माया से आप दो अर्थ ले सकते हैं । पहला तो धन है । आप लोग कहा करते हैंधन को डर है शरीर को नहीं। तो जहाँ धन होता है वहाँ उसकी सुरक्षा की चिन्ता हो जाती है । धनवान को दिन-रात चैन नहीं पड़ती। चोर-डाकुओं का नाम सुनते ही वह कॉप जाता है । किन्तु ऐसा भय दीन-दरिद्र को अथवा हम जैसे साधुओं को कभी नहीं सताता । हमारे पास वैसा धन ही नहीं है, जिसे चोर चुरा सकें। ____ माया का दूसरा अर्थ कपट से लिया जाता है। कपटी व्यक्ति भी सदा भयभीत रहता है कि कहीं उसकी पोल खुल न जाय । मायावी व्यक्ति इस संसार में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy