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________________ अलाभो तं न तज्जए १६१ तो बंधुओ, जिन्हें लोग भगवान कहते हैं, वे भी जब अपने सीने में लात खाकर नाराज नहीं हुए, जरा भी उन्होंने क्रोध नहीं किया तो फिर साधारण व्यक्ति की तो बात ही क्या है ? विष्णु का व्यवहार जगत के सामने आदर्श प्रस्तुत करता हुआ कहता है कि-अपकारी के प्रति भी मन में क्रोध का भाव नहीं आना चाहिए। जिस प्रकार भृगु का लात मारना विष्णु की परीक्षा थी, उसी प्रकार साधक के लिए भी कष्ट एवं परिषह कसौटियां हैं । उन पर कसा जाकर अगर वह खरा नहीं उतरता तो उसकी साधना फल प्रदान नहीं कर सकती । परिषहों के आने पर मन में अगर क्रोध आता है तो उससे किसी न किसी प्रकार की हिंसा होने की सम्भावना रहती है । अतः क्रोध का सर्वथा त्याग करके क्षमा एवं अहिंसा को ही अपनाना चाहिए । क्रोध विषरूप है अतः उसका त्याग करना उचित है और अहिंसा अमृत है अतः उसको ग्रहण करना। आगे कहा है 'माणो अरि कि हियमप्पमादो।' सांसारिक प्राणी का सबसे बड़ा शत्रु मान है । रावण और विभीषण दोनों सगे भाई थे। पर रावण के अभिमान ने उसको परिवार सहित नष्ट कर दिया और विभीषण की निरभिमानता ने लंका का राज्य प्रदान किया। श्री स्थानांग सूत्र में भी मान की निकृष्टता बताते हुए कहा है सेलथंभ समाणं माणं अणुपविठे जीवे, कालं करेइ रइएसु उववज्जति । अर्थात् पत्थर के खम्भे के समान जीवन में कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है । कभी-कभी तो मिथ्याभिमान का परिणाम अगले जन्मों में तो क्या, इसी जन्म में और तुरन्त ही मिल जाता है । रावण और कंस के अभिमान ने उन्हें उसी जन्म में नष्ट किया था यह आप जानते ही हैं । एक ईसाई लघुकथा के द्वारा भी यही बात आपको बताता हूँ। अभिमान का परिणाम एक बार एक गिरजाघर में ईसामसीह के अनेक भक्त उनका गुण-गान करने के लिए बैठे हुए थे। भक्ति पूर्ण मधुर प्रार्थना से गिरजाघर का वातावरण बड़ा शांत एवं आनन्दप्रद बन गया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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