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अलाभो तं न तज्जए
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने 'अलाभ परिषह' के विषय में विचार-विमर्श किया था । आज भी इसी पर कुछ आगे चलाएंगे। 'अलाभ-परिषह' संवर के सत्तावन भेदों में से तेईसवाँ भेद है।
कल मैंने "श्री उत्तराध्ययन सूत्र" के दूसरे अध्ययन में दी हुई तीसवीं गाथा आपके सामने रखी थी, आज इकतीसवीं गाथा कहते हुए अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। गाथा इस प्रकार है
अज्जेवाहं न लन्भामि, अवि लाभो सुए सिया।
जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए । ___ अर्थात् जो साधु इस प्रकार विचार करता है कि आज मुझे आहार नहीं मिला है तो 'सुए' यानी कल मिल जाएगा, उसे अलाम परिषह से किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।
भगवान का आदेश है कि साधु को नियत समय पर भिक्षा के लिए जाने पर भी अगर शुद्ध आहार उपलब्ध न हो तो वह खेद न करे । वरन पूर्ण स्थिरभाव से यह विचार करे कि आज आहार नहीं मिला तो क्या हुआ, कल मिल जाएगा, और कल भी न मिला तो परसों सही ।
अभिप्राय यही है कि आहार के लिए जाने पर भी अगर उसकी प्राप्ति न हो तो वह किं चित् मात्र भी खेद न करे और अपने स्थान पर आकर दृढ़ता पूर्वक आत्मसाधना में लग जाए । आहार के अलाभ से उसके भावों में तनिक भी अशुद्धता नहीं आनी चाहिए । अगर भावनाओं में अन्तर आ जाता है तो त्यागवृत्ति दूषित होती है और उसकी सार्थकता नहीं रहती।
इस संसार में अधिकतर यही देखा जाता है कि इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर व्यक्ति को सबसे पहले क्रोध आता है। अलाभ की स्थिति में अगर किसी का हाथ न हो तो व्यक्ति भगवान पर ही क्रोध करता है और अगर किसी से याचना करने पर
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