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लाभ-हानि को समान मानो
विचार करना चाहिए कि याचना करके शरीर को भाड़ा देता हुआ मैं अपनी आत्मा का उपकार तो करता ही है साथ ही गृहस्थों को भी दान का सूयोग देकर उपकृत करता हूँ। इस प्रकार दान लेने वाले और देने वाले, दोनों ही लाभ में रहते हैं । पर सच पूछा जाय तो लेने वाले की अपेक्षा दान देने वाला अगर उत्तम भावनाओं से देता है तो बहत अधिक प्राप्त करता है। कभी-कभी तो दाता भावों की उत्कृष्टता के कारण 'तीर्थंकर' गोत्र भी बाँध लेता है। जबकि लेने वाला केवल अपने शरीर की आवश्यकता पूरी करता है ।
इस प्रकार साधुओं के लिए कहा जा सकता है—"आप तिरै औरन को तारै।" आवश्यकता केवल इस बात की है कि भगवान के आदेशानुसार वे अपने मन पर पूर्ण संयम रखें तथा भिक्षाचरी के लिए जाने पर गृहस्थ के यहाँ कुछ मिले या न मिले, दोनों ही स्थितियों में पूर्ण समभाव रखते हुए अपने स्थान पर लौटें। अच्छा आहार मिल जाने पर कभी यह न सोचें कि यह मेरे पुण्यों के प्रताप से मिला है और उसके न मिलने पर किसी प्रकार का विषाद भाव मन में न आने दें।
जो अपने मन पर इतना संयम रखता है वही सुसाधु अपनी शुद्ध भावनाओं के कारण दृढ़ कदमों से साधना-पथ पर बढ़ता है तथा मुक्ति का अधिकारी बनता है।
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