SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ आनन्द प्रवचन | छठा भाग यह विचारकर अभिमानी खरगोश झरने का ठण्डा पानी पीकर निश्चिततापूर्वक सो गया । संयोगवश उसे गहरी नींद आ गई और वह घण्टों सोता रहा। इधर कछआ अविराम गति से चलता रहा । वह जरा भी निराश नहीं हुआ और धीरे-धीरे चलकर भी खरगोश के समीप से होता हुआ नियत स्थान पर जा पहुँचा । पर घण्टों सो लेने के पश्चात जब खरगोश उठा तब भी यह सोचकर कि मूर्ख कछुआ अभी तो आधी राह भी पार नहीं कर पाया होगा, दौड़कर अपने लक्ष्य की ओर गया। किन्तु जब वहाँ पहुँचा तो मस्तक पीटकर रह गया, क्योंकि कछुआ वहाँ पहले ही पहुँचकर शान्ति से बैठा था। बन्धुओ, कछुए के इस उदाहरण से आप भलीभाँति समझ गए होंगे कि केवल अपने कर्म की ओर दृष्टिपात करने वाला व्यक्ति किस प्रकार लक्ष्य को पाकर छोड़ता है। अगर कछुआ यह विचार करता कि मेरा और खरगोश का मुकाबला कैसे हो सकता है ? और यह सोचकर वह हिम्मत हारकर रास्ते में ही बैठ जाता तो क्या वह खरगोश को दौड़ में परास्त कर सकता था ? नहीं। बस, इसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी कमजोरियों पर ध्यान न देते हुए सदा सुकर्मों में रत रहना चाहिए । न कभी किए हुए कर्मों का फल न मिल पाने से निराश होना चाहिए और न ही प्रमाद के वश होकर निष्क्रिय होना चाहिए। उसे विश्वास होना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल देर-सबेर स्वयं ही मिलेगा। आग जलाने पर उसका ताप न लगे यह कभी सम्भव नहीं होता, इसी प्रकार कर्म-फल न मिले यह भी नहीं हो सकता। तो बन्धुओ, एक वाक्य के द्वारा अभी मैंने आपको यह बताया है कि दान, अध्ययन एवं कर्म से व्यक्ति को कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए। ये तीनों ही आत्मोनति में सहायक होते हैं। इनमें से पहला दान है, जिसके विषय में बहुत कुछ बताया जा चुका है। दान देने से व्यक्ति को अधिक लाभ होता है, बजाय दान लेने वाले के । क्योंकि जड़ धन तो मृत्यु के पश्चात् यहीं पड़ा रह जाता है, पर अगर ब्यक्ति उसे दान में देता है तो उस धन से अनेक गुना पुण्य वह परलोक में साथ ले जाता है। इसलिए दान देकर व्यक्ति लेने वाले पर अधिक एहसान नहीं करता किन्तु अपना बड़ा भारी उपकार करता है । दान की व्याख्या करते हुए कहा भी है 'स्वपरोपकारार्थ वितरणं दानं ।' अपने एवं पराये उपकार के लिए देने का नाम दान है। तो दान देकर गृहस्थ अपना स्वयं ही महान् उपकार करता है, अतः साधु को दान लेने से ग्लानि अथवा हीनता का अनुभव नहीं करना चाहिए। उसे तो यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy