SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाभ-हानि को समान मानो वस्तुतः महात्मा गाँधी अपने जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। वे इस बात पर विश्वास रखते थे कि लगन से किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं जा सकता। भारत को स्वाधीन करना कोई हँसी-खेल नहीं था, किन्तु दृढ़ संकल्प और कर्म में आस्था रखते हुए उन्होंने केवल उन्नीस व्यक्तियों को लेकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति का प्रयत्न शुरू कर दिया था । परिणाम क्या हुआ, आप जानते ही हैं । धीरे-धीरे अनेकानेक व्यक्ति उनके साथ होते गये और भारत स्वतन्त्र होकर रहा । ___कहने का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति को अपने कर्म से कभी निराश नहीं होना चाहिए तथा उसमें प्रमाद का अनुभव करते हुए निष्क्रियता नहीं आने देना चाहिए । भले ही किन्हीं कारणों से गति धीमी हो जाय, पर कर्म करते हुए कभी रुकना नहीं चाहिए। धीरे-धीरे भी व्यक्ति चलता रहे तो मंजिल अवश्य मिलती है । मैंने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि एक बार एक खरगोश और कछुए में दौड़ खरगोश बड़ा अहंकारी था। वह अपने प्रतिद्वन्द्वी को देखकर बड़े उपहास और तिरस्कारपूर्वक बोला-"मुर्ख, तु मेरे साथ मुकाबला करने के लिये तैयार हुआ है ? जरा अपनी चाल तो देख ? इस चींटी जैसी चाल से तू मुझे दौड़ में हरा सकेगा ?" ___ कछआ बेचारा सहम गया। पर वह बड़ी शांति और नम्रता से बोला"भाई ! दो में से एक की जीत और दूसरे की हार तो होती ही है । पर मुझे अपने कर्म में विश्वास है अत: तुम्हारे मुकाबले में आया हूँ। मैं अपने कर्म से विमुख नहीं होऊँगा, प्रयत्न करता रहूँगा, ताकि अगर हार भी मेरे पल्ले पड़े, तब भी अफसोस की बात नहीं होगी।" ऐसे वार्तालाप के बाद प्रातःकाल में दोनों की दौड़ प्रारम्भ हुई। खरगोश तो पवन-वेग से भाग चला और कछुआ अपनी चाल के अनुसार धीरे-धीरे चलने लगा। उसकी आँखों के सामने ही खरगोश चौकड़ियाँ भरता हुआ नजरों से ओझल हो चुका था। कछुआ जानता था कि उसकी और खरगोश की चाल में जमीन-आसमान का अन्तर है, किन्तु आत्म-विश्वास के धनी और कर्म की महत्ता को समझने वाले बहादुर कछुए ने खरगोश के नजरों से ओझल हो जाने पर भी चिन्ता नहीं की और धीरे-धीरे चलता ही रहा। इधर खरगोश अल्पकाल में ही जब निश्चित किये हुए स्थान के काफी करीब आ गया तो सोचने लगा-"बड़ी ठण्डी हवा चल रही है और समीप ही मीठे पानी का झरना बह रहा है, क्यों न ठण्डा-ठण्डा जल पीकर कुछ देर विश्राम करलूँ। वह कछुआ तो यहाँ शाम तक भी नहीं पहुंच पाएगा और मैं थोड़ी ही देर बाद अपने गंतव्य तक पहुँच जाऊँगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy