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आनन्द प्रवचन | छठा भाग दिखाई दे जाएगी और उससे सन्तोष हो जाएगा, उसी दिन हमारी प्रगति रुक जाएगी तथा मुक्ति की अभिलाषा खटाई में जा पड़ेगी।
अब तीसरी बात कर्म से सन्तुष्ट न होने की है । जो व्यक्ति यह विचार करता है कि मैंने सेवा बहुत कर ली, ज्ञानार्जन कर लिया, दान खूब दे दिया, खूब व्रत किये हैं और तप भी बहुत किया है, वह व्यक्ति कभी अपने इच्छित उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकता। अभी मैंने आपको बताया था कि सन्तुष्टि प्रगति का मार्ग अवरुद्ध कर देती है।
गीता की ध्वनि केवल यही है-"निरन्तर कर्म करते जाओ किन्तु फलप्राप्ति की आशा मत करो।"
कहा जाता है कि एक बार कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति गाँधीजी से मिलने आया । गाँधीजी उस समय अपने आश्रम से बाहर की जमीन को फावड़े से खोद रहे थे। व्यक्ति उनके पास पहुँचा, नमस्कार किया और बोला-"महात्माजी ! मैं आपसे गीता का रहस्य जानना चाहता हूँ।" ।
महात्माजी उस व्यक्ति की बात सुनकर मुस्कराये और बोले-"अच्छा आप बैठिये।"
यह कहने के पश्चात् वे पुनः फावड़े से जमीन खोदने लग गये। आगन्तुक व्यक्ति कुछ देर तक चुपचाप बैठा हुआ उनका कार्य देखता रहा । वह सोच रहा था, अब इनका कार्य समाप्त होगा और ये मुझे बैठकर मुझे गीता का रहस्य समझाएँगे।
किन्तु काफी देर तक बैठे रहने पर भी जब उन्होंने अपना कार्य नहीं छोड़ा तो आगत सज्जन को कुछ बुरा लगा और वह बोला-"महात्मा जी, मै तो कितनी दूर से आपकी ख्याति सुनकर आपसे गीता का मर्म समझने आया था। पर लगता है कि आपको केवल अपने समय का महत्त्व ही अधिक जान पड़ता है, दूसरे का नहीं।"
महात्माजी आगन्तुक की बात पर हंस पड़े और मधुरता से बोले- "भाई ! गीता का रहस्य समझा तो रहा हूँ मैं ।"
यह सुनकर व्यक्ति चकराया और कहने लगा-"कहाँ समझा रहे हैं आप? मैं कब से बैठा हूँ पर आप तो एक शब्द भी नहीं बोले ।"
____ "अरे भाई ! मेरे बोलने की आवश्यकता ही क्या है ? गीता का उपदेश केवल यही है कि 'कर्म करो।' वही तो मैं आपको जबसे बता रहा हूँ। बस, गीता का यही रहस्य है-निरन्तर कर्म करते जाओ, फल की आशा मत करो।"
वह जिज्ञासु व्यक्ति गाँधीजी की बात सुनकर बहुत शर्मिन्दा हुआ, किन्तु भलीभाँति समझ गया कि गाँधीजी ने गीता के रहस्य को केवल' समझा ही नहीं है, उसे जीवन में भी उतार लिया है।
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