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________________ लाभ-हानि को समान मानो १५३ को चिर शांति एवं चिर सुख प्रदान करता है । यह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता तथा जन्म-जन्म तक साथ रहकर संसार को घटाता है । इस प्रकार यह मनुष्य का इष्ट-साधन करता है तथा आत्मा के कल्याण का कारण बनता है। इसीलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं न जानतुल्यः किल कल्पवृक्षो, न ज्ञानतुल्या किल कामधेनुः । न ज्ञानतुल्यः किल कामकुम्भो, ज्ञानेन चिन्तामणिरप्यतुल्यः ॥ अर्थात् --ज्ञान कल्पवृक्ष से भी बढ़कर अभीष्ट फल देने वाला है तथा कामधेनु से बढ़कर अमृत प्रदान करने वाला है । कामकुम्भ इसकी तुलना नहीं कर सकता तथा मनवांछित फल प्रदान करने वाला चिन्तामणि रत्न भी इसके समक्ष नगण्य है । अधिक क्या कहा जाय ? सहस्रों सूर्य एवं हजारों चन्द्र भी जिस नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए निरर्थक हैं, उसी व्यक्ति का अन्तर आत्मज्ञान के उदय होने पर दिव्य प्रकाश से ज्योतिर्मय हो उठता है । 'आवश्यक नियुक्ति' में भी यही बताया है "दव्वुज्जो उज्जोओ, पगासइ परिमियम्मि खेत्तंमि । भावुज्जो उज्जोओ, लोगालोगं पगासेइ ॥" यानी सूर्य और चन्द्र का द्रव्य प्रकाश तो परिमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान का प्रकाश समस्त लोकालोक को प्रकाशित कर देता है। इसलिये बन्धुओ, आत्मज्ञान की प्राप्ति करना आवश्यक है और इसे अधिकाधिक प्राप्त करने का प्रयत्न भी अनिवार्य है। ज्ञान के अलौकिक प्रकाश में तो जीव, जगत के सम्पूर्ण चराचर पदार्थों को हस्तकंगनवत् जान सकता है, फिर हमने अभी पाया ही क्या है ? विवेक चूडामणि की दूसरी गाथा में कहा गया है-आत्मतत्व न जानने पर शास्त्राध्ययन व्यर्थ है तथा उसे जान लेने पर भी शास्त्राध्ययन व्यर्थ है।। आत्मज्ञान का यह गम्भीर विवेचन यथार्थ है । हजार शास्त्रों को तोते के समान रट लिया जाय और उनका पारायण किया जाय, किन्तु आत्मतत्त्व को अगर न जाने तो उस व्यक्ति का शास्त्राध्ययन निरर्थक है और इसी प्रकार आत्मतत्त्व को अगर व्यक्ति जान ले तो फिर शास्त्रों के अध्ययन करने की जरूरत ही क्या है ? ज्ञान का उद्देश्य आत्मतत्त्व को जानना है और जब तक उसे न जान लिया जाय, हमें ज्ञानार्जन से सन्तुष्ट नहीं होना है । जिस दिन भी हमें अपने ज्ञान में पूर्णता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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