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________________ १५२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग मुकाबले में आज हमारे पास है भी क्या ? सिन्धु में बिन्दु के बराबर भी नहीं कहा जा सकता । फिर भी जो अपने आपको ज्ञानी मानता है, वह केवल उसका अहंकार है और पूर्ण ज्ञानी न होने पर भी स्वयं को ज्ञानी मानने वाला अज्ञान है। ___ आज लोग थोड़ी सी पुस्तकें पढ़कर और कुछ परीक्षाओं की डिगरियाँ लेकर अपने आपको पूर्ण ज्ञानी मान लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान के मुकाबले में भौतिक ज्ञान क्या महत्व रखता है ? यह ठीक है कि भौतिक ज्ञान के द्वारा मनुष्य आज बाह्य-दृष्टि से शक्तिशाली बन गया है। वह पंख न होने पर भी गगन में बड़ी ऊँचाई पर उड़ सकता है और सागर की छाती चीर कर उसमें से रत्न ला सकता है। किन्तु आभ्यंतर या आत्मिक ज्ञान के अभाव में या उसकी अपूर्णता से वह आत्मा को संसार-मुक्त कैसे कर सकता है ? आत्मा तो पिंजरे में बद्ध प्राणी के समान ही कष्ट भोगती रहती है । आत्मज्ञान का महत्व बताते हुए कहा है वागवैखरी शब्दझरी, शास्त्र-व्याख्यान कौशलम् । वैदुष्यं विदुषां तद्वत्, भुक्तये न च मुक्तये ।। अविशाते परे तत्त्वे, शास्त्राधीतिस्तु निष्फला । विज्ञाऽतेपि परे तत्त्वे, शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ॥ ___-विवेक चूड़ामणि ६०-६१ आत्मज्ञान के अभावों में विद्वानों की वाक्कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और विद्वत्ता, ये सभी भोगों का कारण हो सकती हैं, मोक्ष का नहीं । आत्मतत्त्व न जानने पर शास्त्राध्ययन व्यर्थ है तथा उसे जान लेने पर भी शास्त्राध्ययन निरर्थक है। वस्तुतः भौतिक ज्ञान से भौतिक सुखों की उपलब्धि हो सकती है और भोग के साधन अधिक से अधिक जुटाये जा सकते हैं, किन्तु उनसे आत्मा की मुक्ति सम्भव नहीं है । आत्मा की मुक्ति तो तभी हो सकती है, जबकि आत्मा के सम्यक् ज्ञान को जगाया जाय तथा उसकी अनन्त शक्ति को प्राप्त किया जाय। भौतिक ज्ञान एवं आत्मज्ञान में महान् अन्तर है। भौतिक ज्ञान भले ही आपको आकाश में उड़ा सकता है, भोगों की प्राप्ति करा सकता है तथा इस लोक में प्रशंसा का पात्र बना सकता है। किन्तु यह अस्थायी और विध्वंसी है । इस शरीर के नष्ट होते ही वह लुप्त हो जाता है, आगे कुछ भी सहायता नहीं करता । लेकिन आत्मिक ज्ञान अज्ञान के अंधकार को मिटाता है, कषायों का नाश करता है, धर्म को विशाल बनाता हुआ पापों को जड़ से उखाड़ता है तथा आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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