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लाभ-हानि को समान मानो
यह सब दान देने के पीछे रही हुई भावना का ही चमत्कार था । इसीलिए मुमुक्षु प्राणी अपने चित्त, वित्त एवं पात्र की शुद्धि का ध्यान रखते हुए निःस्वार्थ भाव से और बिना उसका प्रदर्शन किये दान देते हैं । होना भी यही चाहिये । दाता को कभी दान देते हुए सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये । कहा भी है
"संतोषो नैव कर्तव्यो दानाध्ययन कर्मसुतु ।”
अर्थात् व्यक्ति को दान, अध्ययन एवं कर्म से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए | क्योंकि इनकी कोई सीमा नहीं है ।
दान श्रावक के व्रतों में बड़ा महान् व्रत है । जीवन के अन्तिम क्षण तक भी दान देने की भावना लुप्त नहीं होनी चाहिए । दानवीर कर्ण ने अपने जीवन में तो कभी किसी याचक को निराश किया ही नहीं था, मरते समय भी अपने दाँतों को पत्थर पर पटक कर तोड़ते हुए उनमें लगा हुआ एक माशा सोना दान में दे दिया था ।
एक बार हमारा चातुर्मास घाटकोपर बम्बई में था । वहाँ लक्ष्मीदास पीताम्बर नामक एक लक्षाधीश सद्गृहस्थ थे । बड़े श्रद्धालु एवं निरहंकारी व्यक्ति थे । सदा आठ दिन में एक वेलां करते थे और समय-समय पर अनेक प्रकार का तप किया करते थे । प्रत्येक शनिवार और रविवार को घाटकोपर प्रवचन सुनने के लिए आया करते थे पर बिना किसी हिचकिचाहट के सबसे पीछे बैठते थे ।
एक दिन रात्रि को वे मेरे पास बैठे तो बोले - " मेरे मन में दो बातों की अभिलाषा बाकी है ।"
मैंने कुछ आश्चर्य से कहा – “भाई ! तुम्हें सम्पूर्ण सांसारिक सुख प्राप्त हैं और साथ ही धर्म-ध्यान भी करते जा रहे थे । फिर किस बात की तमन्ना तुम्हारे हृदय में बाकी है ?"
वे संकुचित होते हुए बोले – “महाराज जी ! मैंने पाँच सौ एक, एक हजार एक और पाँच हजार एक का दान तो कई बार किया है पर मैं सोचता हूँ कि मेरे हाथों से एक लाख रुपयों का दान कब होगा ? यह इच्छा मेरे मन में बड़ी तीव्र है । दूसरे मैंने बेले, तेले, अठाई बगैरह भी किये हैं, किन्तु मासखमण अभी तक नहीं किया । अतः सोचता हूँ कि मेरे शरीर से एक महीने की तपस्या कब होगी ?"
व्यक्ति के मन में जब इस प्रकार की भावनाएँ बनी रहती हैं, तभी वह उन्नति के पथ पर बढ़ता है । अगर अपने कार्यों से वह सन्तुष्ट हो जाय तो प्रगति का द्वार भी अवरुद्ध हो जाता है । इसीलिए कहा गया है कि दान से कभी सन्तोष मत करो ।
दूसरी बात है --- अध्ययन, यानी ज्ञानप्राप्ति से कभी सन्तुष्ट मत होओ इस पृथ्वी पर अनेकानेक ज्ञानी आचार्य, सिद्ध एवं केवलज्ञानी हो गए हैं । उनके
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