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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
भजन में भी सुपात्र की श्रेणियाँ और सुपात्र-दान का महत्व बताया गया है तथा मानव से कहा गया है कि तुम नित्य ही दान किया करो? दान देने पर ही जीव को स्थायी सुख प्राप्त हो सकेगा।
बन्धुओ ! यहाँ आपको शंका होगी कि जब दान देना ही है तो किसी को भी क्यों न दिया जाय, उससे क्या फर्क पड़ सकता है ? वस्तु वही है चाहे किसी को भी क्यों न दें।
इस विषय को पानी की बूंद के उदाहरण से समझा जा सकता है। पानी की बूंद वही है, किन्तु वह जलते हुए तवे पर गिरेगी तो तुरन्त जल कर भस्म हो जायगी। वही बूंद अगर कमल के पत्ते पर गिर जायगी तो मोती तो नहीं बन सकेगी, किन्तु कुछ समय तक मोती के समान चमकेगी और देखने वालों के हृदयों को प्रफुल्लित करेगी । पर अगर वही बूंद स्वाति नक्षत्र में सीप के अन्दर गिरेगी तो मूल्यवान मोती का रूप धारण कर लेगी।
इस प्रकार पानी की बूंद एक ही है पर वह तवे के समान कुपात्र के पास पहुँच जाय तो पूर्णतया निष्फल हो जाती है और सीप के समान सुपात्र को प्राप्त होती है तो मोती के समान बहुमूल्य फल प्रदान करती है ।
__ ठीक यही हाल कुपात्र और सुपात्र को दान देने से होता है। इसीलिए भजन में कवि ने कहा है—एक मिथ्यात्वी को दान देने की बजाय अगर एक सम्यग्दृष्टि को दान दिया जाय तो वह हजार गुना फल प्रदान करता है और केवल सम्यग्दृष्टि को दान देने से अनेक गुना लाभ मुनिराज को देने से होता है। इसी प्रकार मुनि से अधिक गणधर को देने से और गणधर से भी अधिक तीर्थंकर को देने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।
संगम ग्वाले ने बड़ी कठिनाई से खीर की प्राप्ति की थी। किन्तु उसे स्वयं न खाकर वह किन्हीं संयमी मुनि की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी तीव्र भावना के अनुसार मासखमण की तपस्या किये हुए मुनि भी उधर आ निकले और हर्ष विभोर होकर उसने मुनि को खीर का दान दिया। मुनिराज शान्ति भाव से खीर लेकर अपने स्थान को लौट गये।
संगम की खीर कोई अमूल्य वस्तु नहीं थी, अमूल्य और उत्कृष्ट तो उसकी देने की भावना थी। उसी के परिणामस्वरूप आगे जाकर वह महान सिद्धि का उपभोक्ता और मगध-सम्राट् श्रेणिक को भी चकित करने वाला शालिभद्र सेठ बना।
शंख राजा ने भी केवल दाख का धोया हुआ पानी देकर तीर्थकर नाम गोत्र का बन्धन किया और बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के उच्च पद की प्राप्ति की।
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