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लाभ-हानि को समान मानो
१४६ लगाया। उसे आहार के मिलने न मिलने पर किसी भी प्रकार का विचार करने की आवश्यकता नहीं होती। सोचना गृहस्थों को ही चाहिए कि हम अवसर का कैसा लाभ उठा रहे हैं ?
बन्धुओ ! मेरा आप से यही कहना है कि साधु आपके यहाँ भिक्षा के लिए आते हैं पर उसके मिलने न मिलने पर उनके लिए कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु आपके लिए देने न देने की भावना के कारण महान् अन्तर पड़ सकता है। इस लिए आपको बड़ा सजग एवं सावधान रहना चाहिए । अर्थात् जब भी किसी तरह के सुपात्र का सुयोग उपलब्ध हो तब हर्षित होते हुए प्रमोद भावना से यथाशक्य दान देना चाहिए। जैनागमों में सुपात्र की भी श्रेणियाँ मानी गई हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) सम्यक् ष्टि, (२) देशविरति श्रावक एवं (३) सर्वविरति साधु ।
इस प्रकार प्रथम श्रेणी में सम्यक्दृष्टि जीव आते हैं जो वीतराग देव, निग्रंथ गुरु एवं केवली-प्ररूपित धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखते हैं। यद्यपि ऐसे व्यक्ति चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम न होने से व्रतों को ग्रहण नहीं कर पाते किन्तु लोक, अलोक, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप एवं आत्मा-परमात्मा पर विश्वास रखने के कारण सुपात्र माने जाते हैं और इन्हें दान देने पर निर्जरा होती है ।
दूसरी श्रेणी के सुपात्रों में श्रावक आते हैं । इनके चारित्रावरणीय कर्म का भी पूरा क्षयोयशम नहीं होता, किन्तु अंशत: होता है अतः ये बारह व्रत श्रावक के धारण करते हैं। पूर्ण त्याग न कर पाने पर भी नौ तत्त्व एवं पच्चीस क्रियाओं के ज्ञाता होने के कारण मर्यादित जीवन-यापन करते हैं। इन्हें दान देने से भी कर्मों की निर्जरा होती है।
अब आती है तीसरी श्रेणी । इस श्रेणी में पंच महाव्रत धारी मुनि होते हैं । मुनि उत्तम कोटि के सुपात्र हैं क्योंकि वे सम्पूर्ण सांसारिक वैभव का सर्वथा परित्याग करके भिक्षावृत्ति से शरीर को टिकाते हैं तथा आत्मा की शक्तियों को जगाते हुए कर्मों से जूझते हैं । इसलिए सर्वोत्कृष्ट सुपात्र मुनि को देने से महान निर्जरा होती है। एक गुजराती भजन में भी सुपात्र की श्रेणियाँ बताते हुए कहा गया हैमिथ्यात्वी थी सहस्र गुणा फल,
समदृष्टि ने दोधां रे । तेथी मुनि, मुनी थी गणधर
तेथी जिनने दोधां रे । बान नित्य करजे रे, दीधांथी,
जीवने साता 'उपजे रे ॥
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