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________________ १४८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग दान के लिए वस्तु का महत्त्व नहीं है अपितु भावना का महत्त्व है । चन्दनबाला ने भगवान महावीर को सरस एवं सुस्वादु पदार्थों का दान नहीं दिया था। केवल उड़द के बाकुले दिये थे। किन्तु उन बाकुलों को कितनी पवित्र एवं उत्तम भावनाओं के साथ श्रद्धा से विभोर होकर दिया था कि अपना संसार ही घटा लिया। तो बन्धुओ, मेरे कहने का आशय यही है कि उत्तम भावनाओं के साथ साधारण वस्तु का दिया हुआ दान भी सात्त्विक और महान् लाभ का कारण बनता है किन्तु बिना इच्छा, बिना श्रद्धा और बिना आत्मा की पवित्रता के जबर्दस्ती और अपमान के साथ दिया हुआ उत्तम पदार्थों का दान भी निष्फल चला जाता है और कर्म-बन्धनों का कारण बनता है । ऐसा दान सबसे निकृष्ट और तामस दान कहलाता है जो दिये जाने पर भी किसी उत्तम फल की प्राप्ति नहीं करा सकता। सुपात्र की पहचान ___ ध्यान में रखने की बात है कि भिक्षु गृहस्थ के यहाँ याचना करने जाता है और गृहस्थ अपनी भावना के अनुसार सात्विक, राजस या तामस दान उसे देता है। वह जैसा दान देगा वैसा ही फल प्राप्त करेगा। इसलिए साधु को गृहस्थ के द्वारा किसी भी प्रकार का दान दिये जाने पर हर्ष या शोक नहीं मानना चाहिए। उसे तो यह विचार करना चाहिए कि वह गृहस्थ को दान का लाभ देकर उपकृत करता है। मैंने सम्भवत: आपको बताया था कि शास्त्रों के अनुसार दो हेतुओं के कारण साधु को कभी भिक्षाचारी से ग्लानि नहीं करनी चाहिए। पहला कारण उसके लिए है-आरम्भ-समारम्भ से निवृत्ति और दूसरा कारण है-सुपात्रदान का लाभ देकर गृहस्थों पर किये जाने वाला उपकार । तो साधु भिक्षा की याचना करके गृहस्थ पर उपकार करता है, यानी उसे दान देने का अवसर देकर उपकृत करता है । अब यह गृहस्थ पर निर्भर है कि वह उस सुन्दर योग से लाभ उठाता है या हानि । इस विषय में साधु को विचार करने की क्या आवश्यकता है ? अगर वह सत्कार एवं सम्मानपूर्वक आहार देगा तो स्वयं लाभ प्राप्त करेगा और ताड़ना या भर्त्सना करेगा तो भी अपनी हानि करेगा। इसके लिए साधु को खेद या पश्चात्ताप क्यों करना चाहिए? और यह क्यों सोचना चाहिए कि प्रतिदिन गृहस्थ के घर हाथ फैलाने से घर में रहना अच्छा । साधु को आहार मिल गया तो ठीक है और नहीं मिला तब भी कोई हानि नहीं । लाभ या हानि गृहस्थ यानी दान देने वाले को होती है। साधु का भला क्या बनता और बिगड़ता है ? केवल यही तो होता है कि मिला तो पेट में डाल लिया और न मिला तो अनशन-ऊनोदरी तप करते हुए वही समय शान्तचित्त से ज्ञान-ध्यान में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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