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________________ लाभ हानि को समान मानो १४७ होता है किन्तु सुपात्र को दान देने से अनन्त गुना लाभ होता है। पर आवश्यकता है उत्तम भावनाओं की। थोड़ा-सा देकर भी अगर उसके बदले में अवश्य ही कुछ पाने की लालसा हो तो वह देना निरर्थक या नहीं के बराबर साबित होता है। ___ एक राजस्थानी कवि ने अनीति से अत्यधिक धन कमाते हुए थोड़ा-सा दान देकर भी उसके बदले में बहुत अधिक पाने की लालसा रखने वाले व्यक्ति के विषय में व्यंगपूर्वक कहा है एरण की चोरी करे. दे सुई को दान । चढ़ डागलिए देखता, कद आसी विमान ॥ कितनी स्पष्ट और सत्य बात है। व्यक्ति धन की चोरी करके एक सुई का तो दान देता है, किन्तु उसके बदले में भी यह आशा रखता है कि मेरे इस दान के फलस्वरूप कब स्वर्ग के देवता मेरे लिए विमान लाकर मुझे स्वर्ग में ले जायेंगे। बन्धुओ, ऐसा दान कभी उत्तम फल की प्राप्ति नहीं करा सकता और न ही यह दान श्रेष्ठ दान की श्रेणी में रखा जा सकता है। बदले में पाने की आकांक्षा से दिया हुआ राजस दान मनुष्य के लिए कल्याणकर नहीं बनता। तामसदान अब आता है तीसरा दान । यह तामस दान कहलाता है। इसके विषय में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं अदेशकाले यद्दान-मपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं, तत्तामसमुदाहृतम् ॥ अर्थात्-जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में कुपात्रों के लिए यानी मद्य-मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं के खाने वालों एवं चोरी-जारी करके निकृष्ट कर्म करने वालों को दिया जाता है, वह तामस दान है । आज के युग में लोगों की प्रवृत्तियाँ बड़ी निंदनीय हो गई हैं । वे अन्न से अपने गोदाम भरे रखते हैं और कई गुने दामों पर उन्हें ब्लेक से बेचते हैं । नाना प्रकार के अमूल्य वस्त्रों से अपनी पेटियाँ भरे रहते हैं और उनमें कीड़े लग जाते हैं। इसी प्रकार सोने-चाँदी और रुपयों-पैसों से उनकी तिजोरियां ठसी हुई रहती हैं जो उनके काम नहीं आता। किन्तु वे भूखों को पेट भरने के लिए अन्न, नंगों को पहनने के लिए वस्त्र और अभावग्रस्त प्राणियों को चार पैसे भी नहीं दे सकते । परन्तु द्वार पर भिक्षुक के आ ही जाने पर अगर देना पड़ता है तो जैसा कि श्लोक में कहा गया है, अत्यन्त तिरस्कार, भर्त्सना एवं अपमानजनक शब्दों के साथ उसे यत्किचित देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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