________________
१४६
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
अनाज पैदा होता है और मुट्ठियां भर-भरकर उछालने वाले का बीज भी व्यर्थ चला जाता है। दान का हाल यही है, जो उसका प्रदर्शन करता है उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता पर जो अन्तःकरण की तीव्र भावना से चुपचाप देता है वह लाभ का अधिकारी बनता है । दान के विषय में “गुप्तदानं महापुण्यं" इसीलिए कहा जाता है । साथ ही यह भी कहते हैं कि अगर दाहिना हाथ दान देता है तो बाँयें हाथ को भी उसका ज्ञान नहीं होना चाहिए ।
तो ऐसा सात्त्विक दान देने वाला ही सच्चा दाता होता है जो दीपक लेकर ढूंढ़ने पर भी कदाचित ही प्राप्त होता है । न्यासस्मृति में भी कहा गया है
शतेषु जायते शूरः, सहस्रषु च पण्डितः ।
वक्ता दश सहलेषु, दाता भवति वा न वा ॥ यानी शूर-वीर सौ में से एक होता है, पण्डित हजार में एक होता है, वक्ता दस हजार में से एक पाया जाता है, किन्तु दाता तो क्वचित होता है और नहीं भी होता है । राजसदान
___ बन्धुओ ! अभी हम सात्त्विक दान देने वाले सच्चे दाता के विषय में गीता के अनुसार जानकारी कर रहे थे, अब उसमें दूसरे प्रकार के दान के विषय में जो कुछ कहा गया है वह देखते हैं। दूसरे प्रकार का दान 'राजस' दान कहा गया है । इससे सम्बन्धित श्लोक इस प्रकार है
यत्तु प्रत्युपकारार्थ, फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्ट, तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ बताया गया है जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से यानी बदले में सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति के प्रयोजन से दिया जाता है वह 'राजस' दान कहलाता है।
आज हम देखते हैं कि अधिकांश व्यक्ति दान देकर बदले में यश की प्राप्ति करना चाहते हैं या दान देकर लेने वाले को सदा के लिए अपना गुलाम बनाने की आकांक्षा रखते हैं। पर यह प्रवृत्ति हीरा देकर कंकर प्राप्त करने के बराबर है। दान का महत्त्व जो मनुष्य नहीं समझता, वही ऐसा करता है । उसे जानना चाहिए
ब्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् ।
क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ॥ धन ब्याज से दुगुना, व्यापार करने से चौगुना और खेती करने से सौगुना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org