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लाभ-हानि को समान मानो
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दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
बहं परघरे अत्थि, विविहं खाइम-साइमं । ___ न तत्थ पण्डिओ कुप्पे. इच्छा देज्ज परो न वा ॥
गृहस्थ के घर में विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ मौजूद हैं, कोई कमी नहीं है। किन्तु भावना देने की होती है और नहीं भी होती। ऐसी स्थिति में मुनि क्या करे? हाथ से उठाकर तो लेना नहीं है । आप जानते ही हैं कि इस संसार में वित्त, चित्त और पात्र तीनों का समान होना बड़ा कठिन होता है। अनेकों व्यक्तियों को हम देखते हैं, उनकी दान देने की भावना बड़ी बलवती होती है किन्तु उसके अनुसार धन नहीं होता। फिर भी वे जो कुछ भी उनके पास होता है, उसी को इतना गद्गद् होकर देते हैं कि तीर्थंकर गोत्र का बन्धन तक कर लेते हैं।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो साधु के आ जाने पर देना पड़ेगा, ऐसा सोचकर तथा न देना तो कुछ बुरा लगेगा या लोग निन्दा करेंगे ऐसा विचारकर बिना हार्दिक भावना के देते हैं या घर के अन्य व्यक्तियों से यहाँ तक कि नौकर-चाकरों से ही दिला देते हैं।
तीसरे प्रकार के व्यक्ति ऐसे भी पाये जाते हैं जो साधु-सन्त को आहार देना वस्तु को पानी में बहा देना मानते हैं और ऐसे व्यक्ति प्रथम तो साधु को देखकर द्वार ही बन्द कर लेते हैं या द्वार बन्द नहीं कर पाते तो उन्हें मुफ्त का माल खाने वाले तथा कामचोर कहते हुए आहार के स्थान पर अनेक गालियाँ और अपशब्द देते हैं।
दान के प्रकार भगवद्गीता में भी दान के तीन प्रकार बताये गये हैं। प्रसंगवश मैं उन्हें आपके सामने वर्णित कर देता हूँ। गीता के अनुसार सात्विक, राजस एवं तामस, इस प्रकार तीन प्रकार का दान बताया गया है
सात्विक दान दातव्यमिति यद्दानं, दीयतेऽनुपकारिणे,
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् । इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं- "हे अर्जुन ! दान देना हमारा कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर बिना किसी स्वार्थ के और बिना किसी प्रदर्शन के दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहलाता है ।
ऐसा दान ही अपना सच्चा फल प्रदान करता है। जिस प्रकार एक किसान बाँस की नली से खेत में अनाज के बीज बोता है और दूसरा मुट्ठी भर-भर के बीज उछालता है । स्पष्ट है कि नली से चुपचाप बीज डालने वाले के खेत में हजारों मन
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