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हानि-लाभ को समान मानो
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से हम बाईस भेदों का वर्णन कर चुके हैं । जिनमें पाँच समिति, तीन गुप्ति एवं चौदह परिषह आये हैं ।
आज हमें पन्द्रहवाँ 'अलाभ - परिषह' लेना है । अलाभ का अर्थ है 'प्राप्ति न होना ।' भिक्षाचरी के लिए सन्त जावे और किसी कारणवश आहार न मिले तो उस स्थिति को 'अलाभ - परिषह' कहा जाता है । इस परिषह पर साधु को मन, वचन एवं कर्म से विजय प्राप्त करनी चाहिए, अर्थात् इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर भी उसके मन में किसी प्रकार की खिन्नता, दुःख या आवेश नहीं आना चाहिए ।
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की तीसवीं गाथा में 'अलाभ परिषह' के विषय में कहा गया है
परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिणिट्ठिए । लद्ध पिण्डे अलद्ध वा, नाणुतप्पेज्ज पंडिए ।
अर्थात् — गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर साधु भिक्षा के लिए जावे परन्तु वहाँ से आहार के मिलने या न मिलने पर भी पण्डित पुरुष मन में किसी प्रकार का हर्ष या शोक न आने दे ।
गाथा में आहार के लिए 'घास' शब्द आया है । इसे सुनकर आपको कुछ आश्चर्य होगा | मराठी भाषा में घास ग्रास को कहते हैं - 'दोन घास जेवून जा' । दो ग्रास ही खालो । इसी प्रकार यहाँ ग्रास के लिए नहीं, किन्तु आहार के लिए गाथा में घास शब्द दिया गया है ।
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तो कहा यही है कि 'परेसु' यानी साधुओं से भिन्न गृहस्थों के घरों में भिक्षा के लिए जाने पर अगर अपने नियम और मर्यादा के अनुसार आहार न मिले तो भी साधु कदापि पश्चात्ताप न करे । पश्चात्ताप करने पर कर्मबन्धन होता है और फिर इसकी आवश्यकता भी क्या है ? वस्तु के उपलब्ध न होने में कई कारण होते हैं ।
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