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________________ याचना-याचना में अन्तर १४३ बोली- “आप इस दूध को पी लीजिये। मैं तभी समझंगी कि आपका स्नेह सच्चा है।" ___ इस पर रथनेमि अवाक् होकर बोला- "तुम क्या मुझसे उपहास कर रही हो ? एक राजकुमारी होकर ऐसी असभ्यता तुम्हें शोभा नहीं देती है। प्रेम का प्रमाण देने के लिए क्या मैं तुम्हारा वमन किया हुआ दूध पिऊँगा?" . राजुल ने रथनेमि के क्रोध का बुरा नहीं माना। वह पूर्ववत् मुस्कुराती हुई कहने लगी- "देवर रथनेमि ! आप वमन को ग्रहण करना नहीं चाहते, यह ठीक है ? किन्तु मैं भी तो आपके भाई के द्वारा वमन की हुई अर्थात् त्यागी हुई स्त्री हूँ। फिर मुझे किस प्रकार अपनाना चाहते हैं ?" __राजुल की यह बात सुनते ही रथनेमि की आँखें खुल गईं और वह अपनी मूर्खता पर पश्चात्ताप करता हुआ वहाँ से लौट आया। कहने का आशय यही है कि किसी भी व्यक्ति को त्याग करने के बाद पुनः अपने नियम को कभी तोड़ना नहीं चाहिए । सन्तों के लिए तो त्याग का बड़ा जबर्दस्त महत्त्व है । जब वे घर-द्वार सभी कुछ त्याग कर अकिंचन भिक्षु बन जाते हैं तो फिर भिक्षाचरी से घबराकर पुनः घर में रहने की इच्छा करना उनके लिए वमन को ग्रहण करने के समान ही है। अतः भिक्षाचरी को तप एवं निर्जरा का हेतु समझ कर उन्हें मन में ग्लानि, हीनता या दुःख को नहीं आने देना चाहिये । अपितु यह विचार करना चाहिए कि मैंने आरम्भ-समारम्भ का सम्पूर्ण रूप से त्याग कर दिया है और अब घर-बार तथा धन-वैभव मेरे लिए वमन के समान है। दूसरे भिक्षा लाने में मेरे लिए किसी प्रकार की लज्जा या दीनता का कोई कारण नहीं है। क्योंकि खाद्य पदार्थ में मुझे तनिक भी गृद्धता, आसक्ति या लोलुपता नहीं है । मैं साधु हूँ और साधु का नियम ही निरवद्य भिक्षा लाकर पेट को माड़ा देना है, अतः उसमें दीनता कैसी ? साधु को यह भी विचार करना चाहिए कि मेरी भिक्षा दीन-भिक्षा नहीं, अपितु वीर-भिक्षा है । इसे साधारण व्यक्ति नहीं अपना सकता। भिक्षा के लिए ही गली-गली डोलने वाले भिक्षुक की वृत्ति और मेरी वृत्ति में श्वान एवं सिंह के जितना अन्तर है। उन भिखारियों की वृत्ति से जहाँ नाना कर्मों का बन्धन होता है, वहाँ मेरी वृत्ति से मेरे अपार कर्मों की निर्जरा होती है। वास्तव में ही ऐसा विचार करने वाले साधु भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी एवं आज्ञाकारी सिद्ध होकर परिषहों का सामना कर सकते हैं तथा संवर मार्ग पर चलकर अपने सम्पूर्ण कर्मों की भी निर्जरा करते हुए अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने में समर्थ हो सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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