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________________ १४२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग वस्तुतः त्याग किये हुए धन, वैभव और गृह को ग्रहण करना वमन किये हुए पदार्थ को ग्रहण करने के समान ही है। राजा इक्षुकार ने प्रथम तो पुरोहित को स्वयं ही दान दिया था अर्थात् पुरोहित की सम्पत्ति राजा के द्वारा त्यागी हुई थी, और फिर पुरोहित ने उसे त्याग दिया। तो दो बार त्यागी हुई वस्तु वमन की हुई नहीं मानी जाय तो उसे और क्या कहा जा सकता है ? सती राजीमती ने भी अपने देवर रथनेमि को इसी प्रकार प्रतिबोध दिया था। जब नेमिनाथ ठीक विवाह के समय अपनी होने वाली पत्नी राजुल को त्यागकर दीक्षित हो गए तो उनके भाई रथनेमि के हृदय में राजुल को अपनाने की अभिलाषा जागृत हुई । वह उसके समक्ष गया और प्रणय-निवेदन करते हुए बोला- "राजीमती मेरे भाई तो जाकर दीक्षित हो गये पर मैं भी उनका भाई हूँ, राजकुमार हूँ और उनसे किसी प्रकार हीन नहीं हूँ। अतः मेरे प्रेम को स्वीकार करो, सुख से जीवनयापन करो।" राजीमती सती थी, बुद्धिमती और चतुर थी। हृदय से वह नेमिनाथ को पति मान चुकी थी अतः रथनेमि से सम्बन्ध जोड़ने के लिए स्वप्न में भी तैयार नहीं थी। किन्तु उसने अपने देवर को अपशब्द कहने के बजाय अपनी चतुराई से शिक्षा देने का विचार किया । फलस्वरूप वह उत्तर में बोली "राजकुमार ! आपके कथन को मैंने समझ लिया है पर इसका उत्तर देने से पहले मैं चाहती हूँ कि आप मेरे लिए कोई अत्युत्तम भेंट लेकर आएँ ।" राजीमती की बात सुनकर रथनेमि फूला नहीं समाया और उसकी बात स्वीकार कर वहाँ से चला गया। अपने निवासस्थान पर पहुँचकर वह विचार करने लगा-"मैं कौनसी उत्तम भेंट लेकर राजुल के समीप जाऊँ, उसके पास किसी वस्तु का अभाव नहीं है क्योंकि वह स्वयं ही राजा की पुत्री है।" पर विचार करते-करते आखिर उसे कुछ सूझा और उसने रत्न-जटित कटोरे में केवल दूध ले जाने का निश्चय किया। उसी दिन सायंकाल अपने निश्चय के अनुसार वह एक बहुमूल्य कटोरे में सुगन्धित दूध राजुल के पास ले गया और बोला-"राजीमती ! देखो मैं कितनी सुन्दर भेंट लेकर तुम्हारे समीप आया हूँ। इस कटोरे में दूध है और मैं चाहता हूँ कि हम इस दूध में मिली हुई मिश्री के समान मधुर और एक होकर रहें।" राजुल ने उसकी बात सुनी और मध्र मुस्कान के साथ बोली "लाइये, दूध मुझे दीजिए ! मैं भी आपकी बात का अभी उत्तर देती हूँ।" __यह कहते हुए उसने हाथ में कटोरा लिया और दूध कंठ से नीचे उतारा। तत्पश्चात् कोई दवा खाकर पुनः उसी कटोरे में वमन कर दिया और अपने देवर से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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