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________________ याचना-याचना में अन्तर १४१ अर्थात् —- जैसे किंपाक फल चखने में और देखने से बड़े मनोरम होते हैं और खाते समय अच्छे लगते हैं किन्तु जब पेट में जाते हैं और उनका रस बनता है तो इस जीवन का ही नाश कर देते हैं । इसी प्रकार कामभोग भी अत्यन्त आकर्षक और सुखद जान पड़ते हैं, परन्तु अन्त में तो सर्वनाशकारी सिद्ध होते हैं । इसलिए साधु को कभी भी पुनः घर में रहने का विचार हृदय में नहीं आने देना चाहिए । हो सकता है कि भिक्षा लाने में संकोच या ग्लानि होने के कारण वह प्रथम तो न्यायपूर्वक या अपने श्रम से कमाकर खाने की इच्छा करे । किन्तु जिस प्रकार वह साधुवृत्ति त्यागकर आरम्भ समारम्भ को अपना सकता है, उसी प्रकार मन के बदलने पर शनैः-शनैः वह काम-भोगों में भी लिप्त हो सकता है । एक काव्य आपने अनेक बार सुना होगा काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय । एक लीक काजर को लागिहै पै लागिहै ॥ यानी काजल से भरे हुए स्थान पर व्यक्ति कितनी भी चतुराई से अपने आपको बचाता हुआ जाय पर उसके वस्त्रों पर अथवा शरीर पर काजल का धब्बा लगे बिना नहीं रह सकता । वमन की वाञ्छा इसके अलावा यहाँ एक बात और ध्यान में रखने की है कि एक साधु जो कि अपना घर, परिवार, धन एवं मकान आदि सभी कुछ एक बार त्याग देता है, और उनसे मुँह फेरकर चल देता है, उसी का पुनः गृहवास की इच्छा करना कितना निकृष्ट एवं निन्दनीय विचार होता है । त्याग देने का अर्थ वमन करना होता है और इसलिए त्यागे हुए घर की पुन: इच्छा करना वमन को ग्रहण करने के समान है । आपने उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्याय में पढ़ा होगा कि इषुकार नगर में भृगु पुरोहित, उसकी पत्नी यशा और दो पुत्रों ने एक साथ ही मुनिधर्म ग्रहण कर लिया । उसके परिणाम स्वरूप पुरोहित की सम्पत्ति वहाँ के राजा बैलगाड़ियों में लदवाकर अपने राज्यकोष के लिए मँगवाते हैं । पर रानी कमलावती जब यह देखती है तो अविलम्ब राजा के समीप जाकर उन्हें समझाते हुए कहती है Jain Education International वंतासी पुरिसो रायं न सो होइ पसंसिओ । माहणेण परिच्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ॥ रानी ने कहा - " राजन् ! वमन किये हुए पदार्थ को खानेवाला पुरुष प्रशंसित नहीं होता । आप ब्राह्मण द्वारा छोड़े हुए वमन रूप धन को ग्रहण करते हैं, यह कदापि ठीक नहीं है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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