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________________ १४० आनन्द प्रवचन | छठा भाग ये मोक्ष-सुख के विरोधी और महा अनिष्ट की खान हैं । इसके अलावा ये कितने दिन भोगे जाने वाले हैं ? जब तक जीवन है तभी तक इनके द्वारा सुख का अनुभव किया जा सकता है । और जीवन तो स्वयं ही क्षणभंगुर है, किसी भी दिन और किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है । पूज्यपाद श्री अमीऋषिजी म० ने अपने एक पद्य में मानव को मृत्यु की वास्तविकता बताते हुए सीख दी हैऐरे मतिमंद खुञ्ची रह्यो क्यों जगत बीच, मौत तो सदा ही संग छांह जैसे रहे है । जांके घर भूत औ भुयंग को रहे है वास, सो तो काहूँ काल में अचान दु:ख सहे है । सोच रे सयाने तेरो आयु दिन रात घटे, सरिता के पूर के समान नित बहे है । कहे अमीरिख क्यों निचित होय बैठो हिय, दया मूल परम धरम क्यों ना गहे है ॥ महाराज श्री ने प्राणी को चेतावनी देते हुए कहा है-"अरे मंदबुद्धि ! तू क्यों इस जगत में रमा हुआ है ? जिस प्रकार घर में भूत-प्रेत या सर्प के रहने पर कभी अचानक ही विपत्ति का सामना करना पड़ता है, इसी प्रकार मौत भी तेरे जन्म के साथ ही छाया की तरह तेरे साथ बनी हुई है । और न जाने किस क्षण वह तुझे अपने आगोश में ले लेगी।" "सयाने बन्धु ! जरा विचार कर और यह भली-भाँति समझले कि जिस प्रकार नदी तेजी से बहती चली जाती है, उसी प्रकार तेरी उम्र भी प्रतिपल समाप्त होती जा रही है। इसलिए तू क्यों निश्चित होकर संसार के सुखों में भूला हुआ है ? क्यों नहीं दयामय धर्म को अपनाकर सदा के लिये सुखी होता है !" जीवन की सफलता शाश्वतसुख की प्राप्ति में ही है और उस सुख को तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि भोगों की लालसा का त्याग कर दिया जाय । ये सांसारिक भोग भोगते समय तो क्षणिक सुख प्रदान करते हैं, किन्तु जब इनसे बँधने वाले कर्मों से सामना करना पड़ता है, तब इनका असली प्रभाव सामने आता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा भी हैजहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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