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याचना-याचना में अन्तर
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है। उन्हें छोड़कर आते समय उसके हृदय में रंचमात्र भी दुःख नहीं होता वरन् अपने नियम का पालन करने की खशी होती है ।
इसीलिये साधु की भिक्षा वीर-भिक्षा कहलाती है । भगवान महावीर ने भी यही आदेश साधु को दिया है कि वह भिक्षाचरी को निर्जरा का हेतु माने तथा उस समय कैसी भी परिस्थितियाँ उसके सामने क्यों न आएँ, अपने मन को विचलित न होने दे । यहाँ तक कि भर्त्सना, ताड़ना, अनादर या अपमान मिलने पर भी अपने चित्त को वैसा ही शान्त रखे, जैसा सम्मानपूर्वक आहार पाने पर रखता है। वह किसी प्रकार के भी अपमान या अनादर के कारण कभी यह विचार न करे कि इस प्रकार प्रतिदिन लोगों के समक्ष हाथ पसारने की अपेक्षा तो घर में रहना अच्छा ।
साधु को सतत यह विचार अपने हृदय में रखना चाहिए कि साधुचर्या सावद्य प्रवृत्ति का सर्वथा निषेध करती है तथा गृहस्थ को सुपात्रदान का लाभ देकर उपकृत करती है । यही दोनों बातें मुनिधर्म को उज्ज्वल बनाती हैं तथा मुनि के आचार में चार चाँद लगाती हैं।
शास्त्र की गाथा में कहा गया है कि भिक्षु भिक्षाचरी लाने में तनिक भी ग्लानि महसूस न करे । क्योंकि संयमशील साधु का शास्त्रोक्त धर्म यही है कि वह अपनी उदरपूर्ति के निमित्त किसी भी प्रकार के आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त न हो अपितु भिक्षावृत्ति से निर्दोष आहार ग्रहण करता हुआ अपने संयम का यथाविधि पालन करे।
साधु तो प्रवृत्तिमार्ग का सर्वथा परित्याग करके निवृत्तिमार्ग पर चलने का संकल्प करता है। किन्तु अगर वही साधु भिक्षा-वृत्ति से ग्लानि रखे तथा भिक्षा लाने में संकोच करे, इतना ही नहीं, वह पुनः गृहस्थ बनने की भावना हृदय में लाए तो उसके निवृत्तिमार्ग का रत्ती भर भी मूल्य नहीं रहता। साथ ही उसकी सावद्य प्रवृत्ति के त्याग की प्रतिज्ञा तो भंग होती ही है, साधुवृत्ति का भी उच्छेद हो जाता है।
ऐसी स्थिति में फिर जीवन की सफलता एवं मोक्ष-प्राप्ति की चाह का सवाल ही कहाँ रह जाता है ? क्या कोई नीम का वृक्ष लगाकर आम की प्राप्ति कर सकता है ? नहीं। घर में रहकर व्यक्ति त्यागी नहीं बनता और सांसारिक सुख भोगते हुए कभी आत्म-कल्याण नहीं किया जा सकता । विष चाहे इच्छा से खाया जाय, अनिच्छा से खाया जाय या भूल से खा लिया जाय, वह अपना असर निश्चय रूप से करेगा ही। इसी प्रकार सांसारिक भोग चाहे जैसी भावना से भोगे जायँ, वे कर्मों का बंधन करते हुए आत्मा को शुद्धि से अथवा मुक्ति से दूर ले ही जाएँगे। संसार के भोग अवास्तविक सुख देने वाले और चिरकाल तक घोर कष्ट प्रदान करने वाले होते हैं।
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