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________________ १३८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग गोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी नो सुप्पसारए। 'सेओ अगारवासु' ति, इहे भिक्खू न चितए । अर्थात्-भिक्षा के निमित्त से किसी के घर में जाने पर साधु कभी इस प्रकार का विचार न करे कि इन लोगों के घरों में प्रतिदिन हाथ फैलाने की अपेक्षा तो घर में रहना ही श्रेष्ठ है। ___इस गाथा के द्वारा भगवान साधु को भिक्षा के लिये जाने पर मन में तनिक भी ग्लानि अथवा दीनता या हीनता का भाव न रखने का आदेश देते हैं। क्योंकि साधु की भिक्षा, दीन-भिक्षा नहीं, अपितु वीर-भिक्षा होती है । अभी मैंने आपको बताया था कि दीन-हीन भिखारी एवं साधु की याचना में कितना अन्तर होता है। एक पद्य के द्वारा पुनः उस बात को आपके सामने रखता हूँ। पद्य इस प्रकार है "वेपथुः मलिनं वक्त्रं, दीना वाक् गद्गदः स्वरः । मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके ॥" कहा गया है—भिखारी जब भिक्षा मांगते हैं तब उनके शरीर में कंपन होता है, मुँह मलिन रहता है, चेहरा दीनता से कुम्हला जाता है तथा अत्यन्त दीन वाक्य उनके मुँह से निकलते हैं, जिनसे यही झलकता है-हमें कृपा करके कुछ दो, तुम्हारे सिवाय कौन हमारी उदर-पूर्ति करेगा और तुम न दोगे तो हम बेमौत मर जायेंगे। इस प्रकार गद्गद् स्वर से वे दर-दर पर याचना करते हैं। कवि ने आगे कहा है कि ऐसे व्यक्तियों के मरते समय भी यही चिह्न चेहरे पर बने रहते हैं। शरीर में कंपकपी, चेहरे पर कातरता और मलिनता, अत्यन्त शोक और पीछे रहने वाले बाल-बच्चों के लिये अपार चिन्तायुक्त दीन-वचन । तो उन लोगों के याचना करते समय और मरते समय भी वही लक्षण शरीर और चेहरे पर रहते हैं। दूसरे शब्दों में उनका जीना और मरना समान ही होता है। न उन्हें जीवित रहते हुए कभी शान्ति और सन्तोष का अनुभव होता है और न मरते वक्त भी इनकी प्राप्ति होती है। किन्तु मुनि दोनों ही परिस्थितियों का वीरता से मुकाबला करता है। वह भिक्षा के लिये जाता है किन्तु कभी दीन-वचनों का उच्चारण नहीं करता और न ही उसके मन में ऐसी भावना आती है। यहाँ तक कि भले ही उसके नेत्रों के समक्ष अनेकों सरस और सुस्वादु पदार्थ हों, पर कहीं तनिक भी दोष वह अपने नियमों के प्रतिकूल देख लेता है तो बिना उनकी ओर दृष्टिपात किये ही उलटे पगों लौट आता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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