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________________ कहो क्यारे पछी तरशो ? झोली फैलाकर भी देश, समाज और धर्म के लिए धन इकट्ठा करके पुण्य-संचय कर लेते हैं। तीसरे व्यक्ति वे भी होते हैं जो ये दोनों कार्य नहीं कर पाते, किन्तु दानदाताओं की गद्गद् हृदय से प्रशंसा करते हैं और उनकी सराहना करते हुए भी कुछ न कुछ पुण्य अपने पल्ले में बाँध लेते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को शुभ कार्य करने के इन तीनों प्रकारों में से जो भी बन सके अवश्य करना चाहिए तथा संघ के अग्रणी व्यक्तियों को भी सबका सहयोग समान भाव से लेना चाहिए। इसी का नाम संगठन है। संगठन के अभाव में कभी कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो पाता। चाहे कोई व्यक्ति श्रीमन्त हो या गरीब, विद्वान हो या कम शिक्षा प्राप्त, समाज रूपी भवन को बनाने के लिए तो प्रत्येक का सहयोग आवश्यक है। भले ही समाज का कोई सदस्य एक हजार रुपये दान में देता है और दूसरा केवल एक रुपया ही दे पाता है। तब भी किसी के अन्तःकरण में एक रुपया देने वाले के प्रति तिरस्कार या उदासीनता का भाव नहीं आना चाहिए। जो महत्व एक हजार रुपये का होता है, वही महत्व एक रुपये का भी माना जाना चाहिए । एक सुन्दर दोहे में कहा भी है बड़े बड़न को देखिके, लघु न दीजिए डारि । जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि ? सीधी और सरल भाषा में कितनी मार्मिक बात कही गई है कि बड़े-बड़े श्रेष्ठियों और श्रीमन्तों को देखकर कभी भी गरीबों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जाने किस वक्त वे ही निर्धन व्यक्ति धनवानों की अपेक्षा अधिक काम आयेंगे। हम प्रायः देखते भी हैं कि समाज के किसी बन्धु-बान्धवहीन एकाकी व्यक्ति की सेवा का जब अवसर आता है, अर्थात् उसका अपना कोई सेवा करने वाला नहीं होता तब कोई भी श्रीमान उस अनाथ और रोगी की तरफ आँख उठाकर नहीं देखता और वे ही व्यक्ति जो धन से रहित किन्तु करुणा और प्रेम की भावना के धनी होते हैं, उस समय बिना ग्लानि और उपेक्षा के उस बीमार की सेवा करते हैं। क्या यह कम महत्वपूर्ण है ? अधिक पैसा पास में होने पर चाँदी के चन्द सिक्के तो कोई भी फेंक सकता है, किन्तु दुर्बल और रोगी की सेवा वह कभी नहीं कर सकता और ऐसी स्थिति में दान की अपेक्षा सेवा का महत्व अनेक गुना अधिक माना जाता है। समय पर आया हूँ महात्मा बुद्ध के शिष्य उपगुप्त के विषय में आपने सुना होगा कि एक बार जब वह भिक्षा के लिए मथुरा शहर के किसी मार्ग से गुजर रहे थे, एक असाधारण सुन्दरी नर्तकी ने उन्हें अपने भवन के गवाक्ष से देखा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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