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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
नर्तकी मथुरा की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी थी और उसका नाम वासवदत्ता था। वासवदत्ता ने ज्योंही अति सुन्दर और युवा भिक्षु को देखा तो उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर झपटती हुई अपने भवन की सीढ़ियों से नीचे उतर आई और पुकारा
"भन्ते ! तनिक रुक जाइये।"
भिक्षु उपगुप्त ने ज्योंही किसी नारी की आवाज सुनी वह रुक गये और समीप आकर अपने भिक्षापात्र को उन्होंने आगे बढ़ाया। किन्तु सुन्दरी वासवदत्ता ने भिक्षा देने के बदले उनसे प्रार्थना की
___ "देव आप ऊपर चलकर मेरे भवन में निवास करें। मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति और मैं स्वयं ही आपकी हूँ। मुझे स्वीकार करने की कृपा करें।"
भिक्षु ने सुन्दरी की प्रार्थना सुनकर कहा"भद्रे, मैं तुम्हारे पास फिर आऊँगा।" “कब ?" नर्तकी ने व्याकुलता पूर्वक पूछा ।
"जब तुम्हें मेरी आवश्यकता होगी।" यह कहकर भिक्षु वहाँ से चल दिया । वासवदत्ता अपलक नेत्रों से तब तक उसे निहारती रही, जब तक कि वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया।
इसके पश्चात् अनेक वर्ष गुजर गये । वासवदत्ता युवावस्था पार कर गई और सदाचार के अभाव में उसका शरीर भयंकर रोगों से ग्रसित होकर अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य को खोकर कुरूप और घिनौना बन गया। एक दिन ऐसा भी आया कि वह धन-सम्पत्ति, मकान एवं सभी सुख-सुविधा के साधनों से रहित मैले-कुचैले और फटे कपड़े शरीर पर लपेटे शहर से बाहर किसी सड़क के किनारे पड़ी हुई थी। उसकी देह पर रहे हुए अगणित घावों से भयानक दुर्गंध निकलकर दूर तक की हवा को बदबूदार बना रही थी। वह पूर्णतया निराश्रित और अपाहिज स्थिति में जमीन पर पड़ी हुई कराह रही थी, किन्तु ऐसे प्राणी की कौन सार-सम्हाल करता? ___ अचानक ही उधर से एक भिक्षु निकला और उसकी दृष्टि उस मलिनवसना रोगिणी नारी पर पड़ी । कुछ क्षण वह उसे देखता रहा और उसके पश्चात् समीप आकर बैठ गया । अपने पात्र में से उसने जल निकाला और वस्त्र के एक खंड से नारी के तीव्र दुर्गंधमय घावों को धोने लगा।
किसी के हाथों के स्पर्श से रोगिणी को कुछ चेतना आई और उसने मन्द स्वर से पूछा
"कौन हो तुम?"
"मैं भिक्षु उपगुप्त हूँ वासवदत्ता ! अपने वायदे के अनुसार ठीक वक्त पर आ गया हूँ।"
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