SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ याचना-याचना में अन्तर १३५ की उन्हें आवश्यकता होगी। जरूरत होने पर वे निर्विकार भाव से वस्तु की याचना करेंगे और याचना के परिणामस्वरूप किसी ने अपशब्द कहे या गालियाँ दी तो भी उन्हें सहज एवं समभाव से सहन कर लेंगे । ऐसा करने पर ही वे अपने कर्मों की निर्जरा में सफल होंगे तथा संवर के मार्ग पर चलेंगे। साधु को जीवन में सभी प्रकार की स्थितियों से गुजरना पड़ता है । कभी उन्हें भक्ति, श्रद्धा और सम्मान से दान देने वाले मिलते हैं और कभी भर्त्सना युक्त शब्दों से देने वाले भी। साथ ही कभी ऐसे व्यक्ति भी मिलते हैं जो भर्त्सना, गालियाँ या अपशब्द ही देते हैं, दान नहीं । आशय यही कि संसार में सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। स्थानांग सूत्र के चौथे अध्याय में मेघ से तुलना करते हुए चार प्रकार के व्यक्ति बताए गय हैं । गाथा इस प्रकार है गज्जित्ता णाम एगे णो वासित्ता । वासित्ता णामं एगे णो गज्जित्ता । एगे गज्जित्ता वि वासित्ता वि । एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता । मेघ के गरजने को बोलने और बरसने को देने की उपमा देते हुए मनुष्य के लिए कहा गया है कि संसार में चार प्रकार के व्यक्ति होते हैं कुछ बोलते हैं, देते नहीं। कुछ देते हैं किन्तु बोलते नहीं। कुछ देते भी हैं और बोलते भी हैं। और कुछ न बोलते हैं, न ही देते हैं । पर साधु इस प्रकार के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समान स्नेहभाव एवं समभाव रखते हैं। वे देने वाले से विशेष प्रसन्न नहीं होते और न देने वाले पर नाराज नहीं होते । साथ ही कोई भी वस्तु न देकर केवल कटु-शब्द प्रदान करने वाले पर भी वे वही सहज और स्नेहपूर्ण भाव रखते हैं । वे इस बात से भयभीत रहते हैं कि अगर मन पर संयम न रहने से कोई कटु शब्द जबान से निकल गया तो मेरे कर्मों का बन्धन तो होगा ही साथ ही, और कोई अनर्थ न घट जाय । द्रौपदी के एक ही कटुवाक्य से महाभारत हुआ था और ऐवंता मुनि के कटु-शब्दों से कंस का अनिष्ट । ऐवंता मुनि कंस के भाई थे। मुनिधर्म ग्रहण करने के पश्चात् संयोगवश एक बार वे विचरण करते-करते अपने भाई कंस के नगर में आ पहुँचे और उस वक्त राजमहल में आहार की याचना के लिए पहुंचे, जबकि कंस की बहन देवकी का विवाह था और ब्याह के गीत गाये जा रहे थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy