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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
देते हैं और निःशंक होकर शांत चित्त से अपनी साधना में लग जाते हैं । उनके लिए भोजन का कोई महत्व नहीं होता, महत्व होता है अपनी साधना का, संयम का और समभाव का।
तो बंधुओ, अब आप भली-भाँति समझ गये होंगे कि साधारण भिखारी की याचना में और संयमी साधु की याचना में कितना अन्तर होता है ? दोनों की याचना परस्पर विपरीतता लिए हुए होती है और दूसरे शब्दों में जमीन-आसमान का अन्तर रखती है।
कल मैंने संत तुकाराम जी की बात आपको बताई थी, आज उस बात को पूरी करता हूँ। उनकी तथा उन जैसे संतों की ईश्वर से यही प्रार्थना होती है
मागणे लई नाहीं, लई नाही,
पोटा पुरते देई, मागणे लई नाहीं । पोली साजुक अथवा शिली,
देवा देई भुकेच्या वेली, मागणे लई नाहीं । वस्त्र नव अथवा जुने,
देवा देई अंग भरून, मागणे लई नाहीं ।
सच्चे साध कहते हैं-हे प्रभो ! हमें संसार की किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, महल, मकान, धन, खेत, जमीन, सोना, चाँदी एवं भोग-विलास के किसी भी साधन को हम आपसे नहीं चाहते । हमें साधना करके आत्म-कल्याण करना है पर इसके लिए शरीर की जरूरत है। केवल इसीलिए भूख के तंग करने पर केवल पेट भरने लायक अन्न मिल जाय, वही काफी है। रोटी भी चाहे ताजी हो, चाहे बासी । उससे हमारे लिए कोई अन्तर नहीं पड़ता।
इसके अलावा सांसारिक मर्यादा अथवा लोक-लज्जा के कारण तन ढकना आवश्यक है अतः हमें वस्त्र लेना है । वह वस्त्र भी चाहे नया हो, चाहे पुराना, इसकी भी हमें परवाह नहीं है, बस शरीर ही ढकना है। बस, इनके अलावा हम आपसे कुछ भी नहीं माँगते ।
तो सच्चे साधु इस प्रकार लापरवाही से जैसा मिले वैसा अन्न और जैसा मिल जाय तैसा ही कपड़ा ले लेते हैं। संत-सतियों के काम में नये हों तो ठीक और नहीं तो पुराने वस्त्र भी काम में आ जाते हैं। जरूरत से अधिक लेने का तो सवाल ही नहीं है, क्योंकि अपना बोझ वे स्वयं ही उठाते हैं, फिर अधिक वस्तु लेकर उठाने की परेशानी कौन मोल लेना चाहेगा ? कोई भी नहीं। साधु अपरिग्रही होते हैं और आवश्यकता से अधिक होना परिग्रह में आ जाता है । अत: वे उतना ही लेंगे जितने
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