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याचना-याचना में अन्तर
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कहा है—याचना के अक्षरों के साथ याचक के प्राण मुंह से बाहर निकल जाते हैं । पर दाता अगर यह कहता है कि-'देता हूँ।' तो इन अक्षरों के साथ प्राण पुनः कानों के द्वारा अन्दर प्रवेश कर जाते हैं ।
तो ऐसे व्यक्ति जो कि दिन में सैकड़ों बार मरते-जीते हैं तथा अपनी दरिद्रता को कोसते हुए महान् आर्तध्यान पूर्वक दिन-रात हाय-हाय करते हुए अपनी जिन्दगी के दिन रो-झींककर गुजारते हैं वे भला याचना को निर्जरा का हेतु कैसे बना सकते हैं ? वे तो प्रतिपल अशुभ कर्मों का बन्धन करते चले जाते हैं।
- इसके विपरीत अपना सब कुछ स्वेच्छा से त्यागकर अकिंचन बन जाने वाला तथा अपरिग्रह व्रत को धारण करने वाला श्रमण कदम-कदम पर अपने कर्मों की निर्जरा करता चलता है । वह अपने आपको स्वप्न में भी दीन-हीन नहीं समझता, वरन् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त चारित्र का धनी मानता है । वह अपनी आत्मा में असीम शक्ति का अनुभव करता है तथा पूर्ण साहस एवं विश्वासपूर्वक दृढ़ कदम रखता हुआ साधना के मार्ग पर चलता है ।
सच्चा साधु केवल तन ढकने के लिए वस्त्र की और शरीर टिकाये रखने के लिए आहार की याचना करता है। न उसे यह परवाह होती है कि खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट हो, और न यही फिक्र रहती है कि उदरपूर्ति होनी ही चाहिए। रोटी के दो टुकड़े भी मिल जायँ तो वे पेट में डालकर अपनी साधना में लग जाते हैं।
महात्मा कबीर ने तो क्षुधा को कुतिया की उपमा देते हुए कहा है
क्षुधा कारी कुतरी करत भजन में भंग । या को टुकड़ा डारि के भजन करो निःशंक ॥
पद्य का अर्थ कठिन नहीं है और न ही इसकी भाषा अलंकार युक्त है । किन्तु. सीधे-सादे कुछ शब्दों में ही भावना के पीछे रहने वाला बड़ा भारी रहस्य छुपा हुआ है।
जिस प्रकार कुत्ता भोजन की लालसा में बार-बार दरवाजे के अन्दर घुसने की कोशिश करता हुआ आपको परेशान करता है, पूंछ हिला-हिलाकर याचना करता हुआ आपकी शांति में विघ्न डालता है और इसके फलस्वरूप आप लापरवाही, उपेक्षा और झुंझलाहट से उसके सामने रोटी का टुकड़ा फेंककर निर्विघ्न होते हुए अपने काम में लग जाते हैं, उसी प्रकार सच्चे साधु क्षुधा को कुतिया के समान समझते हैं जो भोज्य-पदार्थ की इच्छा से बार-बार जागृत होकर उनकी साधना में विघ्न डालती है। और इसीलिए वे उसे बड़ी झंझलाहट, निस्पृहता, उपेक्षा और बेपरवाही से कम-ज्यादा, रूखा-सूखा एवं सुस्वादु या बेस्वाद, जैसा भी मिल जाता है, दे
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