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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
लेता है । अर्थात् सम्मान सहित दिये जाने पर वह प्रसन्न नहीं होता और अपमान किये जाने पर शोक का अनुभव नहीं करता।
मुनि के लिए नियम है कि उसकी प्रत्येक वस्तु चाहे वह वस्त्र हो, पात्र हो या आहार-जल हो, सभी मांगकर ली हुई होती है। अपना कहने को उसके पास कुछ नहीं होता । सम्पूर्ण 'अपने' को तो वह संयम ग्रहण करने से पहले ही त्याग देता है। इसी लिए वह किसी वस्तु की याचना करने में अपनी हीनता नहीं समझता और याचना को परिषह समझकर उस पर विजय प्राप्त करता हुआ संतुष्ट रहता है । साधु अपने प्रत्येक आचार-विचार एवं कार्य से कर्मों की निर्जरा करने के लिए कटिबद्ध रहता है। निर्जरा के बारह प्रकार होते हैं तथा उनमें से एक भिक्षाचरी भी है। आशय यह है कि याचना करके भिक्षा लाना भी निर्जरा का कारण है। फिर कर्मों की निर्जरा की दृष्टि से भिक्षा लाना साधु क्यों नहीं पसंद करेगा? कर्मों को तो जिसजिस प्रकार से भी बने, काटना ही है । मांगने-माँगने में अन्तर
बन्धुओ, यहाँ आप यह विचार कर सकते हैं कि माँगना अथवा याचना करना अगर कर्मों की निर्जरा का हेतु है तो जितने भी संसार में भिखारी हैं, वे सभी अपने कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं ?
पर ऐसा विचार करना अत्यन्त भ्रमात्मक एवं पूर्णतया गलत है।
अधिकांशतः आप जिन भिखारियों को देखते हैं, प्रथम तो वे अपनी धनदौलत त्यागकर भिखारी नहीं बनते । अमाव के कारण मजबूर होकर वे भीख माँगते हैं। दूसरे उनमें न आत्म-कल्याण की भावना होती है, न कर्मों की निर्जरा करने की और न ही उनमें समता पूर्वक याचना को परिषह समझ उसे सहन करने की भावना ही रहती है। उनके हृदय में अपार तृष्णा, गृद्धता, लोलुपता एवं आसक्ति सतत बनी रहती है । अतः याचना करने पर इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर उन्हें अपार दुःख, क्रोध एवं कष्ट का अनुभव होता है। वे चिड़चिड़ाते हैं, मन ही मन गालियाँ देते हैं और कोई-कोई तो गृहस्थ को कोसते और शाप देते हुए उसके द्वार से लौटते हैं। साथ ही उन्हें अगर चार पैसे भी मांगने से मिल जायँ तो उसे ऐसी गृद्धता एवं आसक्ति पूर्वक रखते हैं, जिस प्रकार एक श्रेष्ठि अपने लाखों की सम्पत्ति में आसक्ति रखता है । भिखारी की तृष्णा कभी शांत नहीं होती, चाहे उसे कितना भी कुछ क्यों न मिल जाय ।
एक श्लोक में ऐसे याचक की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए बताया गया
वदनाच्च बहिर्यान्ति, प्राणा याञ्चाक्षरैः सह । दवामीत्यक्षरतुः, पुनः कर्णाद् विशन्ति हि ॥
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