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याचना-याचना में अन्तर
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने 'याचना-परिषह' के विषय में विचार किया था। आज भी इसी विषय पर कुछ और चलाएँगे।
आप लोगों को याचना' शब्द प्रिय नहीं लगता, याचना अर्थात् माँगना । भला किसी से कुछ माँगना आप कैसे पसन्द कर सकते हैं ? कहा भी जाता है
धनमस्तीति वाणिज्यं, किंचिदस्तीति कर्षणम् ।
सेवा न किंचिदस्तीति, भिक्षा नैव च नैव च ॥ अर्थात्-व्यक्ति के पास पर्याप्त धन हो तो व्यापार, थोड़ा धन हो तो खेती एवं बिलकुल ही धन न हो तो नौकरी या मजदूरी करनी चाहिए किन्तु भिक्षा तो कभी भी नहीं माँगनी चाहिए। कबीर जी ने भी यही कहा है
माँगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख ।
मांगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ।। इन पद्यों से स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिए माँगना या याचना करना अत्यन्त निकृष्ट कार्य है और माँगना मृत्यु के समान दुःखदायी है ।
किन्तु बन्धुओ ! साधु के लिए यह बात लागू नहीं होती। जो भव्य प्राणी साधु बनना चाहता है वह चाहे लखपति हो या करोड़पति, राजा हो या चक्रवर्ती, अपना सर्वस्व त्याग देता है तथा अकिंचन अर्थात् कुछ भी अपने पास न रखने वाला बन जाता है । वह पूर्ण रूप से अपरिग्रही बनकर कल की चिन्ता न करता हुआ आज की आवश्यकता के अनुसार वस्तु याचना करके लाता है और उसके भी न मिलने पर परेशान या दुःखी नहीं होता वरन पूर्ण संतोष व शांति से अपनी साधना में लगा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि साधु मानापमान में पूर्ण समभाव रखता है तथा याचना करने पर जैसा भी व्यवहार उसे मिलता है उस पर विजय प्राप्त कर
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