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याचना परिषह पर विजय
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एक बात और भी है कि लोग दान को पैसा खर्च होना मानते हैं, पर यह विचार नहीं करते कि उससे जो प्राप्त होता है वह दिये हुए अन्न, वस्त्र या धन के मुकाबले में कितना अधिक होता है।
व्यासस्मृति में एक बड़ा सुन्दर श्लोक दिया गया है
अदाता-पुरुषस्त्यागी, धनं संत्यज्य गच्छति ।
दातारं कृपण मन्ये, न मृतोऽप्यथ मुञ्चति ॥ कहते हैं कि अदाता यानी दान न देने वाला कृपण पुरुष ही वास्तव में त्यागी है, क्योंकि वह धन को यहीं छोड़कर चला जाता है, साथ में कुछ नहीं ले जाता । पर दाता को मैं कृपण मानता हूँ, क्योंकि वह मरने पर भी धन को नहीं छोड़ता और उसे पुण्य के रूप में बदलकर अपने साथ ले जाता है।
वास्तव में दानी पुरुष ही अपने साथ पुण्य-रूपी धन ले जा सकता है । पर जो जीवन भर धन इकट्ठा करता रहता है, दान में एक पैसा भी खर्च नहीं करता, वह अन्त में हाथ मल-मलकर पछताता है।।
आचार्य चाणक्य ने मधुमक्खियों के सतत पैरों को घिसने से अन्दाज लगाया है कि मधुमक्खियाँ पश्चात्ताप करती हुई कह रही हैं
देयं भो ! ह्यधने-धनं सुकृतिभिर्नो संचयस्तस्यवै, श्री कर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीतिः स्थिता । अस्माकं मधुदान-भोग रहितं नष्टं चिरात्संचितं, निर्वेदादिति नैजपादयुगलं घर्षन्त्यहो ! मक्षिकाः ॥
अर्थात्-व्यक्तियों को धन का केवल संग्रह न करते हुए उसे अभावग्रस्त लोगों को देते रहना चाहिए। क्योंकि दान के द्वारा ही कर्ण, बलि और विक्रम आदि राजाओं की ख्याति आज तक विद्यमान है ।
दान एवं भोग के बिना हमारा मधु, जो चिरकाल से संचित था, नष्ट हो गया है। इसी दुःख से हम अपने दोनों पैरों को घिस रही हैं।
तो बन्धुओ ! हमारा मूल विषय तो याचना को लेकर चल रहा था, किन्तु प्रसंगवश दान के विषय में भी कुछ बता दिया गया है। क्योंकि याचना और दान का आपस में सम्बन्ध है । साधु प्रत्येक वस्तु याचना करके लेता है और गृहस्थ दान देता है। पर देने वाले की भावना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। कोई आन्तरिक उल्लास,
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