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________________ १२८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग इच्छा थी कि मेरा बाकी शरीर भी सुनहरा हो जाय। इसी अभिलाषा से मैं तब से तपोवनों में और यज्ञशालाओं की धूल में लोटता रहता हूँ कि कहीं उस ब्राह्मण के जैसा महादान कोई दे तो मैं पूरा सुनहरा बनकर चमकने लगें । किन्तु ऐसा लगता है कि उस दान का मुकाबला करने वाला कोई भी दान अब तक नहीं दिया गया है और महाराज युधिष्ठिर ने यद्यपि बहुत दान लोगों को दिया है, पर वह भी उस ब्राह्मण के दान से कम है और उस एक सेर आटे की बराबरी नहीं कर सकता।" । __नेवले की बात सुनकर यज्ञशाला में उपस्थित महाराज युधिष्ठिर और अन्य सभी लोगों के मस्तक लज्जा से झुक गये । उन्हें समझ में आ गया कि श्रेष्ठ दान किसे कहते हैं। वस्तुतः कीर्ति की इच्छा से दिया हुआ दान, दान नहीं कहलाता। सच्चा दान वही होता है जो बिना ख्याति-प्राप्ति की अभिलाषा से मन, वचन एवं शरीर से दिया जाता है । कहा भी है सक्कच्चं दानं देथ, सहत्था दानं देथ । चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्धं दानं देथ ।। -दीर्घनिकाय २।१०।५ अर्थात्-सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो और ठीक तरह से दोषरहित दान दो। बन्धुओ ! आज हम देखते हैं कि आप श्रेष्ठि लोग अगर दान देते हैं तो इसी लिए कि दानदाताओं की सूची में आपका नाम अंकित हो जाय । स्थानकों में, धर्मशालाओं में या मन्दिरों में आपके नाम का शिलालेख सदा के लिए लग जाय । अगर ऐसा न हो तो आपको दान देने की कतई इच्छा न हो। प्रमाणस्वरूप हम लोग आपके घरों में भिक्षा की याचना के लिए जाते हैं, किन्तु आप लोगों को अपने हाथ से हमें भिक्षा देने की भावना नहीं होती। उलटे साधु को आता देखकर आप घर में इधर-उधर हो जाते हैं। आहार आपके घरों में बहनें देती हैं क्योंकि साधु रसोईघर तक पहुँच ही जाते हैं। इसके अलावा अनेक घरों में तो बहनें भी इस कार्य को नहीं करतीं। क्योंकि आपके पास बहुत पैसा होता है अतः रसोई भी नौकरचाकर बनाते हैं। परिणाम यह होता है कि साधु को आहार-जल प्रदान करना भी नौकरों के जिम्मे कर दिया जाता है । तो साधु घर में आते हैं, इसलिए अन्य कार्यों के समान भिक्षा देने का कार्य भी जहाँ नौकर का होता है, क्या उस घर में से दिया हुआ आहार-दान, दान कहला सकता है ? क्या आप उस दान से कुछ लाभ हासिल कर सकते हैं ? नहीं, दान ऐसी सस्ती चीज नहीं है, जिसको चाहे जिस प्रकार दिये या दिलाये जाने पर भी वह फल प्रदान करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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