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________________ १२६ आनन्द प्रवचन | छठा भाग "इस स्थिति में कुछ क्षण भी नहीं बीते थे कि चतुर एवं पतिव्रता ब्राह्मणी जो कि समीप ही बैठी थी, बोल उठी- "स्वामी ! मेरे हिस्से का यह आटा भी अतिथि देवता के समक्ष रख दीजिये।" ब्राह्मण संकुचित होता हुआ बोला- "देवी तुम भूखी हो। पति का कर्तव्य तो पत्नी का भरण-पोषण करना होता है, किन्तु मैं कई दिनों से तुम्हें कुछ भी नहीं खिला सका, इसलिए तुम्हारा शरीर अत्यन्त निर्बल हो गया है । फिर भला तुम्हें भूखी रखकर मैं अतिथि-सत्कार कैसे करूँ ?" पर पत्नी कब मानने वाली थी? आग्रहपूर्वक बोली- “मैं आपकी सहघर्मिणी हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि सभी में मेरा आपके समान अधिकार तो आतिथ्य में क्यों नहीं होगा ? आप कृपा करके मेरे हिस्से का आटा भी सहर्ष अतिथि को प्रदान करिये ।" ब्राह्मण ने पत्नी की पति-भक्ति एवं अतिथि-सत्कार का आदर करते हुए उसके हिस्से का आटा भी अतिथि के समक्ष रख दिया। पर उसे खा चुकने पर भी ब्राह्मण की भूख नहीं मिटी । इस पर ब्राह्मण बड़ा उदास हुआ और अतिथि को सन्तुष्ट न कर पाने के कारण दुखी होने लगा। यह देखते ही ब्राह्मण का पुत्र बोला- "पिताजी ! आप चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? यह मेरा आटा रखा है न, इसे अतिथि को खिलाइये ।" पुत्र की बात सुनकर ब्राह्मण व्यथित होता हुआ कहने लगा- "बेटा ! बूढ़े व्यक्ति भूख सहन कर लेते हैं पर जवानी में तो भूख अधिक सताती है, फिर मैं किस प्रकार तुम्हारा हिस्सा अतिथि को दूं ?" ____सपूत पुत्र बोला- “पिताजी ! पुत्र का कर्तव्य पिता के गौरव और धर्म को अक्षुण्ण रखना होता है । इसके अलावा भूख भले ही जवानी में अधिक लगती हो पर जवान शरीर अधिक समय तक भूख सहन भी कर लेता है तथा कृश नहीं होता । मुझे तनिक भी कष्ट नहीं है । आप सहर्ष इस आटे को अतिथि के सन्मुख रखें।" इस बात पर बेटे के लिए गर्व करते हुए ब्राह्मण ने अपने पुत्र का हिस्सा भी अतिथि को सन्तुष्ट करने के लिए दे दिया। पर आश्चर्य की बात थी कि अतिथि का पेट तब भी नहीं भरा और उसके मुँह पर सन्तोष की झलक दिखाई नहीं दी। यह देखकर ब्राह्मण अत्यन्त लज्जित होता हुआ मस्तक झुकाकर बैठ गया। पर उसी क्षण उसकी पुत्रवधू कहने लगी"पिताजी ! यह मेरा हिस्सा भी मैं अपने आगत अतिथि को देना चाहती हूँ। आप यह आटा कृपा करके इनके सन्मुख रख दीजिए। मेरा तो आपके आशीर्वाद से ही कल्याण होगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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