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________________ याचना परिषह पर विजय १२५ “एक सेर आटे में यज्ञ ?" लोग इस बात को सुनकर मुँह बाये खड़े रह गये । पर अपनी उत्सुकता शान्त न कर पाने के कारण फिर कह बैठे - "कैसी बातें कर रहे हो तुम ? इस महान् यज्ञ से बड़ा यज्ञ केवल एक सेर आटे में किया गया था ? और वह भी एक दीन-दरिद्र ब्राह्मण के द्वारा ? क्या प्रमाण है इसका तुम्हारे पास कि उसका यज्ञ हमारे इस शास्त्रोक्त यज्ञ से महान् था ?" इन प्रश्नों को सुनकर नेवला बोला - "अगर आप लोग जानना ही चाहते हैं तो सुनिये ! इस महाभारत के युद्ध से पहले कुरुक्षेत्र में एक अत्यन्त गरीब ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू भी उसके परिवार में थे । उनके पास पैसा नहीं था अतः खेतों में बिखरे हुए अनाज के दानों को बीन बीनकर वे इकट्ठा करते थे और तीसरा पहर प्रारम्भ होने के कुछ पहले ही सब आपस में बाँटकर खा लिया करते थे । वे अनाज मिलने पर अपने नियत समय पर खाते थे और उस समय तक अगर कभी अनाज न मिलता तो चारों उपवास कर लेते थे । एक बार पानी न बरसने के कारण बड़ा भारी अकाल पड़ गया। चारों तरफ लोग भूख एवं प्यास से तड़पने लगे । ऐसी स्थिति में खेतों में कुछ उगता नहीं था और जब उगता नहीं था तो फसल कहाँ से कटती और अनाज वहाँ बिखरता भी कैसे ? अतः ब्राह्मण परिवार को कई दिन तक निराहार रहना पड़ा । पर एक दिन संयोगवश वे लोग बहुत दूर निकल गये और तपती दोपहर में घूमते-घामते उन्हें करीब एक सेर ज्वार के दाने मिल गये । उन दानों को बीनते हुए उन्हें घण्टों लगे पर वे प्रसन्न होकर घर लौटे और उनका आटा पीसा । परिवार के चारों सदस्यों ने अपना नित्य का पूजा-पाठ समाप्त किया । इसके पश्चात् उस आटे को बराबर-बराबर चार भागों में बाँटकर वे प्रसन्नता पूर्वक खाने के लिए बैठे । किन्तु ठीक उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आया और उसने भूख से पीड़ित होने की दुहाई देते हुए अपने लिए भोजन माँगा । ब्राह्मण तो अतिथि को देखते ही उठ खड़ा हुआ और उसने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विधिवत् उसका सत्कार किया । उसे अपने समीप बैठाया और कहा - " विप्रवर और तो कुछ हमारे पास है नहीं, केवल परिश्रम से तैयार किया हुआ यह ज्वार का आटा है । कृपा करके आप इसे ग्रहण करें ।" यह कहते हुए हर्ष-विह्वल होकर ब्राह्मण ने अपने भाग का आटा अतिथि के समक्ष रख दिया । अतिथि ने ब्राह्मण के हिस्से का आटा खा लिया किन्तु उसकी भूख नहीं मिटी और वह तृषित नेत्रों से ब्राह्मण की ओर देखने लगा । ब्राह्मण ने यह समझ लिया और समझकर वह चिन्तित हो गया कि ब्राह्मण को अब क्या खिलाऊँ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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