________________
याचना परिषह पर विजय
१२१
अर्थात् —हे लोगो ! साधु का आचार अत्यन्त कठिन है । उसके उपकरण आदि समस्त पदार्थ माँगे हुए होते हैं, बिना मांगा तो उसके पास कुछ भी नहीं होता । इस गाथा में भगवान ने साधुचर्या को अत्यन्त दुष्कर बताया है, क्योंकि साधुजीवन में आयुपर्यन्त याचनावृत्ति बनी रहती है । साधु के पास वस्त्र एवं पात्र आदि जो भी उपकरण होते हैं, वे सब गृहस्थों से माँगे हुए होते हैं। बिना माँगी एक भी वस्तु उसके पास नहीं होती । जिस वस्तु की भी उसको जरूरत होती है वह बिना मांगे उसके पास नहीं आती और यह वृत्ति सदा उसके साथ बनी रहती है, अतः इस परतन्त्रता के कारण ही साधु-जीवन को अत्यन्त दुष्कर माना जाता है । किन्तु साधु को याचना करना परिषह नहीं समझना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार वस्तु को माँगने में किसी भी प्रकार की लज्जा का, हीनता का अथवा संकोच का अनुभव नहीं करना चाहिए ।
सच्चे साधु इस परिषह को भी हर्ष या शोक से रहित होकर सहन करते हैं | संत-समाज में सेवाभावी संत तपस्वी या रोगी साधुओं की सेवा के लिए प्रतिपल तैयार रहते हैं । उनके दिल में इस प्रकार का अभिमान नहीं होता कि मैं अमुक कार्य नहीं करूँगा अथवा पुनः पुनः वस्तुओं की याचना के लिए नहीं जाऊँगा ।
मैंने स्वयं देखा है कि मुनि कृष्णमोहन जी करीब बहत्तर वर्ष की उम्र के थे । किन्तु आहार एक बार ले आने पर भी अगर वे देखते कि संतों को यह कम होगा तो चुपचाप पुनः चल देते थे । कभी यह विचार नहीं करते थे कि एक बार चक्कर लगाकर मैं थक गया हूँ या दुबारा जाने में शर्म आएगी । संयोग मिले तो साधु ले आता है और न मिले तो न सही ।
तो, भिक्षा लाना बड़ा कठिन कार्य है, वस्त्र तो एक बार ले लिया फिर कई दिनों तक माँगने की जरूरत नहीं पड़ती, किन्तु आहार तो एक दिन नहीं, नित्य ही लाना पड़ता है । जब तक जीवन है भिक्षा लाने से छुटकारा नहीं मिलना । संग्रह तो साधु किसी भी चीज का नहीं कर सकता । वस्त्र या पात्र वह इतना ही रखेगा, जितना अपने हाथों से विहार करते समय उठा सकेगा और खाने-पीने की वस्तु को तो एक रात भी वह अपने पास नहीं रख सकता, ऐसा नियम है । इसलिए प्रतिदिन उसे भिक्षाचरी के लिए जाना पड़ता है । यह भी नहीं हो सकता कि कोई गृहस्थ स्वयं लाकर दे दे अथवा किसी से कहकर ही अपने निवास पर मंगा लिया जाय । कभी-कभी तो भिक्षा लेने के लिए काफी काफी समय तक भी लोगों को समझाना पड़ता है और अनेक बार गालियाँ या अपशब्द सुनने को मिलते हैं, भिक्षा नहीं मिलती ।
एक बार हम दक्षिण से मालवे की तरफ जा रहे थे, साथ में मेरे छोटे गुरुभाई उत्तमऋषिजी थे । धूलिया से आगे 'पलाशनेर' गाँव आता है । आठ-द
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org