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________________ १२२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग 1 कोस का मार्ग था किन्तु अवस्था अधिक नहीं थी अतः उत्साह के कारण चलते गये । आखिर गाँव आया । वहाँ जैन श्रावकों के घर नहीं थे । पूछने पर मालूम हुआ कि ब्राह्मण का घर है । मैं काफी थक गया था अतः उत्तमऋषि जी भिक्षा के लिए गये । ब्राह्मण के घर से बाहर ही उसकी दुकान थी । उत्तमऋषि जी वहाँ पहुँचे कि शायद भुने हुए चने वगैरह मिल जायँ । ब्राह्मण के मन में कुछ भावना जागी और वह उत्तम ऋषि जी से बोला- “चलो, तुमको रोटी दिलाता हूँ ।" संत ब्राह्मण के साथ घर गये तो ब्राह्मण बोला - " दरवाजे पर खड़े रहो, मैं रोटी ला देता हूँ ।" किन्तु संत ने कहा - "भाई ! इस तरह हम आहार नहीं लेते । पहले घर में जाकर देखेंगे, फिर लेंगे ।" इस बात पर ब्राह्मण नाराज हो गया और बोला - "अरे वाह ! घर में घुसने की क्या जरूरत है ? तुम्हें रोटी ही तो चाहिए, मैं लाकर दे दूंगा ।" संत नहीं माने और वहाँ से लौट चले तो ब्राह्मण उनके साथ मेरे पास आया और कहने लगा "महाराज ! यह तुम्हारे कैसे नियम हैं कि घर में घुसकर देखेंगे, तब रोटी लेगें ?” मैंने ब्राह्मण को समझाया - "देखो, हमें घर में जाकर देखना पड़ता है कि खाने की वस्तु शुद्ध है या नहीं ? शुद्ध हो तभी ले सकते हैं । हम जानते हैं कि इस संसार में कनक और कामिनी दो ही चीजें हैं, जिन्हें देखकर मन बिगड़ता है पर प्रत्येक स्त्री हमारे लिए माता या बहन के समान है तथा धन मिट्टी के समान । पर घर में जाकर इसलिए देखते हैं कि कोई खाद्य पदार्थ अशुद्ध तो नहीं है । इसीलिए संत घर के अन्दर जाना चाहते थे । " इस प्रकार ब्राह्मण को काफी समझाया किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ और बोला- “घर में तो मैं साधु को नहीं घुसने दूंगा । चने चाहिए तो ले लो ।” मैंने उत्तर दिया – “ठीक है, हम चने ही ले लेंगे ।" सारांश यही है कि याचना के लिए जाना कठिन है तथा अपने नियमों का पालन करते हुए भिक्षा लाना उससे भी कठिन है । आप विचार करते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में संतों को क्या तकलीफ है ? बहुत घर होते हैं अतः सहज ही आहार की उपलब्धि हो जाती है । 1 आपका यह विचार करना ठीक है, पर साधु एक स्थान पर केवल चातुर्मास में ही ठहरते हैं । बाकी समय में तो उन्हें ग्रामानुग्राम विचरण करना पड़ता है । और उस काल में आहार-जल के लिए उन्हें न जाने कितनी परेशानियाँ उठानी पड़ती हैं तथा कितनी ही अप्रिय बातें भी सुननी होती हैं । साथ ही आहार ताजा मिले या बासी, कपड़ा नया मिले या पुराना किन्तु संयम की मर्यादा के अनुसार ही लिया जा सकता है । इस प्रकार साधु को याचना जीवन भर करनी पड़ती है और साथ ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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