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याचना परिषह पर विजय
बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
हमारा संवर तत्त्व के विषय में विवेचन चल रहा है। कल 'वध-परिषह' के विषय में बताया गया था और आज संवर के बाईसवें भेद यानी चौदहवें परिषह के विषय में कहा जाएगा। यह परिषह 'याचना परिषह' कहलाता है। किसी से याचना करना सरल नहीं है, अपितु बड़ा कठिन कार्य है ।
आज आप लोगों से अगर कहा जाय कि एक दिन के लिए ही सही, पर आप झोली लेकर कुछ घरों से अपने खाने के लिए माँग लाइये अर्थात् भिक्षा ले आइये तो सुनते ही आपका पारा गरम हो उठेगा। इस बात को सुनने में भी आप अपना अपमान महसूस करेंगे और अपने गौरव पर की हुई चोट समझेंगे।
किन्तु हमारे साधु-समाज में ऐसा सोचने से काम नहीं चलता । यहाँ तो साधु चाहे निर्धन कुल से आया हो अथवा कोई श्रेष्ठि, राजा, महाराजा या चक्रवर्ती ही क्यों न रहा हो, जब वह संयम ग्रहण कर लेता है तो उसे अपने लिए भिक्षा लेने जाना ही पड़ता है और याचना करनी होती है ।
पर यहाँ यह बात ध्यान में रखने की है कि गृहस्थों के आहार ग्रहण करने की भावना में और साधु के आहार ग्रहण करने की भावना में बड़ा भारी अन्तर होता है । गृहस्थ जहाँ भोजन जीभ के स्वाद की दृष्टि से और शरीर को पौष्टिक बनाने की दृष्टि से खाता है, वहाँ साधु उसे केवल शरीर को भाड़ा देने की दृष्टि से ग्रहण करता है। वह न खाद्य-पदार्थों के सरस या नीरस होने की परवाह करता है और न ही उसके पौष्टिक होने का खयाल रखता है। वह तो जो कुछ, जैसा और जितना भी मिल जाय अर्थात् भले ही उससे उदरपूर्ति न हो, लेकर पेट में डाल लेता है कि उसके द्वारा शरीर टिका रह सके और उसके द्वारा भक्ति, जप, तप एवं साधना आदि आत्मिक लाभ की क्रियाएँ की जा सकें। भगवान महावीर ने 'याचना परिषह' के विषय में फरमाया है
दुक्करं खलु भो निच्चं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २, गा० २८
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