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________________ सबके संग डोलत काल बली ११६ इसीलिए भगवान ने प्रत्येक साधक को और मुनि को अनिवार्य आदेश दिया है कि कैसा भी परिषह क्यों न सामने आए, कभी भी उससे विचलित होकर अपने साधनापथ से मत हटो। किसी दुष्ट व्यक्ति के द्वारा शारीरिक या मरणांतक कष्ट दिये जाने पर अगर साधक के मन में क्रोध आ गया तो समझना चाहिए कि वह संवर मार्ग से च्युत होकर आश्रव की ओर गमन कर रहा है । क्योंकि क्रोध ऐसा कषाय है, जिसका उद्रेक होने पर व्यक्ति आपे में नहीं रहता तथा औरों का अहित करने के साथ ही अपना ही बुरा कर बैठता है। अतः शास्त्रकार कहते हैं कि 'आक्रोश' अथवा 'वध-परिषह' के उपस्थित होने पर भी आत्म-मुक्ति के अभिलाषी साधक को कषाय पर विजय प्राप्त करते हुए पूर्णतया समभाव में विचरण करना चाहिए । उसे यह निश्चित रूप से जानना चाहिए कि उपसर्ग और परिषह उसके लिए पुराना कर्ज है, जिसे चुकाना तो अनिवार्य है ही, पर उन्हें चुकाते सयय कषाय करके नवीन कर्ज न चढ़ा लिया जाय । जो साधक या मुनि इस बात को भली-भाँति समझ लेते हैं वे संवर की आराधना करते हुए अपने मानव-जीवन को सफल कर लेते हैं तथा जीवन के लक्ष्य को हासिल करने में समर्थ बनते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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