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________________ ११४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कहता है-'इस साहूकार ने मेरा सब कुछ ले लिया, मुझे जीते जी मार डाला।' लेकिन वह जीवित तो होता ही है । __इसी प्रकार जीवात्मा की सम्पत्ति पाँचों इन्द्रियाँ हैं—कान, नाक, आँख, जबान और शरीर । किसी के द्वारा मार दिये जाने पर वह सम्पत्ति लुट जाती है। आत्मा की इस सम्पत्ति को लूटना ही हिंसा है और इस हिंसा से बचने के लिये 'अहिंसा परमो धर्मः' कहा जाता है। तो साधु एवं प्रत्येक साधक को यही समझना है कि अगर कोई व्यक्ति उसे कष्ट पहुंचाता है या उसका वध भी कर देता है तो उसके शरीर की ही हानि होती है, आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ता। इस प्रकार का समभाव आना संवर मार्ग में प्रवेश करना है, पर यह सहज में नहीं आता। मन को बड़ा मजबूत बनाना पड़ता है। यद्यपि संवर और आश्रव में दूरी नहीं है । जैसे नल के पेच को इधर घुमाया तो पानी गिरना चालू हो जाता है और जरा सा उधर घुमाया तो बन्द हो जाता है। इसी प्रकार मन को स्थिर रखा तो संवर और अस्थिर कर दिया तो आश्रव यानी कर्मों का आना प्रारम्भ होता है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि परिषहों के आने पर तो दिल को मजबूत रखना ही है किन्तु उसके अलावा भी हमें जीवन का प्रत्येक क्षण सार्थक करना है। यह सही है कि आत्मा कभी मरती नहीं है, किन्तु यह मानव शरीर तो इसे पुनः पुनः नहीं मिलता । न जाने कितने पुण्यों के उदय से जब यह प्राप्त हो गया है तो इससे लाभ न उठाना महा मूर्खता है । अगर यह शरीर पाकर भी हम व्यर्थ के व्यापार में लगे रहे तो उससे क्या लाभ होना है ? सन्त तुकाराम जी कहते हैं :खापराचे होण, खेलती लेकुरे; काय त्या व्यापारे लाभ हानि ? बन्धुओ, आप जानते हैं कि छोटे-छोटे बालक मिट्टी के ठीकरे के पैसे और मिट्टी की ढेरियों को दाल, चावल एवं गेहूँ आदि बताकर व्यापार का खेल खेलते हैं। एक बच्चा मिट्टी तोल-तोल कर देता है और दूसरा ठीकरी के पैसे से उन्हें खरीदता है तो उस खेल में ठीकरी की मोहरों को प्राप्त करके बालकों को क्या लाभ हो सकता है ? कुछ भी नहीं । उलटे हाथ-पैर एवं कपड़े गन्दे हो जाते हैं तथा माता-पिता की डाँट और मार खानी पड़ती है। ठीक यही हाल आप लोगों के व्यापार का भी है । आप भी जमीन से निकली हुई धातु, सोने या चाँदी के भोर आजकल तो केवल कागजों के सिक्कों से दिन-रात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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