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________________ सबके संग डोलत काल बली ११३ विनाश नहीं कर सकता । जल प्रत्येक पदार्थ को भिगोता है किन्तु आत्मा को गीला नहीं कर सकता। इसी प्रकार वायु प्रत्येक गीले पदार्थ को सुखा देती है किन्तु आत्मा को नहीं सुखा सकती। केवल जन्म और मरण इसे कैद में रखते हैं तथा वह किसी का पुत्र, किसी का पिता और किसी का पति कहलाता है। किन्तु ये सब सम्बन्ध प्रत्येक जन्म में बदलते रहते हैं और आत्मा इन सबसे अलग ही बनी रहती है । कहा भी है "जन्योस्ति न जनकोस्ति भवान् कदाचित् । सच्चित्सुखात्मकतया त्वमसि प्रसिद्ध. ॥" पद्य में जीव को सम्बोधित करते हुए कहा है- "हे आत्मन् ! तुम किसी के पुत्र या किसी के पिता नहीं हो । तुम तो सदा रहने वाले चेतन के रूप में प्रसिद्ध हो।" आत्मा के इस सच्चे स्वरूप को कामदेव श्रावक ने भली-भांति समझ लिया था। 'उपासकदशासूत्र' में इनका वर्णन आता है कि मिथ्यात्वी देवता आकर उन्हें धर्म से डिगाने का प्रयत्न करता है । वह कहता है-'धर्म के इस ढोंग को छोड़ दो, इसमें क्या रखा है ?' पर कामदेव कहाँ मानने वाले थे ? वे निश्चल बने रहे । इस पर देव ने हाथी, पिशाच और भयंकर विषधर नाग के रूप में आकर उन्हें डराया । यहाँ तक कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके भी अपने प्रयत्न को जारी रखा। किन्तु पक्के श्रावक कामदेव सुमेरु पर्वत की तरह अडिग बने रहे । उन्होंने विचार किया-“यह तो एक ही देवता है पर हजार देव भी मिलकर आ जाएँ तो क्या मेरी आत्मा के टुकड़े कर सकते हैं ? कभी नहीं। यह शायद वैर के रूप में अपना पुराना कर्ज वसूल कर रहा है, और नहीं तो पाप-कर्म बाँध रहा है। मुझे इस पर क्रोध करने की और धर्म से चलित होने की आवश्यकता ही क्या है ?" यह विचार करते हुए वे दृढ़ रहे ।। कामदेव श्रावक की इस दृढ़ता की स्वयं भगवान महावीर ने अपनी सभा में संत-सतियों के समक्ष प्रशंसा की और कहा-“देखो, कामदेव श्रावक ने गृहस्थ होकर भी धर्म के लिये कितना 'परिषह' सहन किया तथा कैसी दृढ़ता रखी फिर तुम तो संयमी और मोक्षमार्गी हो अतः तुम्हें तो स्वप्न में भी परिषहों से घबराना नहीं चाहिए तथा 'आक्रोश' या 'वध' कैसा भी परिषह क्यों न सामने आए, पूर्ण समभाव से सहन करना चाहिए। बन्धुओ, यहाँ आपके दिल में प्रश्न उठ सकता है कि जब जीव मरता ही नहीं है तो फिर 'अहिंसा परमो धर्मः' कहने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यही है कि जिस प्रकार साहूकार लेन-देन में किसी व्यक्ति का धन, मकान एवं खेती वगैरह सब कुछ कुर्क करा लेता है तो व्यक्ति शोकग्रस्त होकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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