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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
भी उसका प्रतिकार करने की भावना मन में न लाये । वह ऐसे निकृष्ट एवं जघन्य व्यवहार को अनुभव करके भी अपने मुनिधर्म पर दृढ़ रहकर शान्तिपूर्वक यह विचारे कि यह व्यक्ति मेरे शरीर को तो हानि पहुँचा सकता है किन्तु मेरी ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमय आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। यह शरीर तो नश्वर ही है और एक दिन इसे नाश को प्राप्त होना है, फिर आज ही इसके जाने पर दु.ख अथवा शोक किस बात का ? ऐसा विचार करने वाला श्रमण ही सच्चे मायने में श्रमण कहला सकता है।
गाथा में सर्वप्रथम 'समण' शब्द आया है । 'श्रमण' यानी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में श्रम करने वाला । यद्यपि श्रम तो कुदाली और फावड़ा लेकर दुनियादारी के अन्य लोग भी करते हैं। किन्तु उन्हें श्रमण नहीं कहा जायेगा। श्रमण वे ही कहलायेंगे जो आत्मा को कर्मों से मुक्त करके जन्म-मरण को समाप्त करने का प्रयत्न या श्रम करते हैं। श्रमण के विषय में कहा गया हैइह लोगणिरावेक्खो,
___ अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।।
—प्रवचनसार ३।२६ अर्थात् जो कषायरहित है, इस लोक में निरपेक्ष है और विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है।
तो बन्धओ ! जैसा कि श्लोक में बताया गया है जो साधु कषाय से सर्वथा रहित है वही सच्चा श्रमण है और कषाय से रहित होने वाला श्रमण ही परिषहों को शान्ति एवं समभाव से सहन कर सकता है। वह श्रमण ही किसी के द्वारा प्राण हनन किये जाने पर विचार कर सकता है कि नाश शरीर का हो रहा है, आत्मा का नहीं। भगवद्गीता में एक श्लोक दिया गया है -
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। श्लोक में कहा गया है कि इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न इसको आग जला सकती है, न इसको जल गीला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।
वस्तुतः यह आत्मा 'न छिद्दई न भिद्दई।' इसका न छेदन हो सकता है और न भेदन ।" यह अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगी। इसका कोई भी
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