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सबके संग डोलत काल बली
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से बारहवें 'आक्रोश परिषह' के विषय में विचार किया था और आज तेरहवें 'वध-परिषह' के विषय में जानकारी करेंगे ।
____ इस परिषह के बारे में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय में छब्बीसवीं गाथा आई है । उसमें कहा है
हओ न संजले भिक्ख, मणं पि न पओसए ।
तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्ख-धम्मं विचितए ॥ अर्थ है मार-पीट किये जाने पर भी साधु मारने वाले पर मन से भी द्वंष न करे अपितु क्षमा को उत्तम समझकर अपने मुनिधर्म का ही चिन्तन करे।
इस गाथा के द्वारा भगवान महावीर ने साधु को उपदेश दिया है कि अगर कोई अज्ञानी एवं मूर्ख व्यक्ति उसे मारे-पीटे तथा डण्डे आदि से ताड़न करे तो भी साधु मन या वचन से उसका अनिष्ट न सोचे तथा उसके प्रति क्षमा का भाव रखे।
मुनियों के लिए ऐसे प्रसंगों का आना कोई बड़ी बात नहीं है । संसार में दुष्ट व्यक्ति होते हैं और वे समय-समय पर साधुओं को ऐसे कष्ट भी पहुंचाये बिना नहीं रहते । किन्तु वे समय ही साधु के लिए क्षमा एवं सहनशीलता की परीक्षा के कारण बनते हैं । अगर इस प्रकार के परिषहों के उपस्थित होने पर साध अपने क्षमाधर्म को त्याग दे तो उसकी उत्कृष्ट साधु-चर्या दूषित हो जाती है तथा उसमें कलंक लग जाता है। वह परिषह पर विजय प्राप्त करने के बदले स्वयं पराजित होता है। इसलिए ऐसे अवसरों पर साधु को रंचमात्र भी विचलित हुए बिना अपने श्रमण-धर्म पर दृढ़ रहते हुए 'वध-परिषह' का मुकाबला करते हुए उस पर पूर्ण विजय प्राप्त करनी चाहिए।
___ हमारे श्रोताओं के दिल में यह विचार आयेगा कि मार-पीट का यहाँ क्या काम है ? पर यह विचार सही नहीं है, क्योंकि सन्तों पर भी ऐसे परिषह आते हैं
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